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उत्तरगुण : १७३ विजयोदया टीका में कहा है कि इस काल में भक्तप्रत्याख्यान मरण विधि ही पालन योग्य है । शेष दो मरण तो वज्रऋषभनाराच आदि विशेष संहनन धारक पुरुषों के होते हैं । पर इस पंचमकाल में इस प्रकार के संहनन के धारक जीव भरत क्षेत्र में उत्पन्न नहीं होते हैं।' पंडितमरण में पंडित शब्द सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप-इन चार अर्थों में व्यवहृत होता है । इस दृष्टि से जिनका ज्ञान, चारित्रादि परम प्रकर्षता को प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे प्रमत्त संयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती साधुओं का जो मरण होता है उसे पंडितमरण कहते ।
१. भक्त-प्रत्याख्यान-भक्तप्रत्याख्यान से तात्पर्य है भक्त अर्थात् आहार का, प्रत्याख्यान अर्थात त्याग । इस प्रकार आहार के त्यागपूर्वक मरणविधान को भक्त प्रत्याख्यान कहते हैं । इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहर्त तथा उत्कृष्ट काल बारह वर्ष प्रमाण है। विजयोदया टीका में कहा है कि दीक्षाग्रहण से लेकर निर्यापक गुरु का आश्रय लेने के अन्तिम दिन तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे अतिचारों की आलोचना करके गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त को स्वीकार करके द्रव्यसल्लेखना और भावसल्लेखनापूर्वक तीन प्रकार के आहार के त्याग आदि के क्रम से रत्नत्रय की आराधना करना भक्तप्रत्याख्यान है ।' ___ इस विधि पूर्वक मरण करने वाले अपनी वैयावृत्त्य स्वयं भी करता और दूसरों से भी कराता है। शिवार्य ने भक्तप्रत्याख्यान मरण के सविचार और अविचार-ये दो भेद माने हैं। जो उत्साह अर्थात् बलयुक्त है, जिसकी मृत्यु तत्काल होने वाली नहीं है, उस मुनि के भक्तप्रत्याख्यान को सविचार भक्तप्रत्याख्यान कहते हैं। तथा विविध कारणों से मृत्यु की आकस्मिक सम्भावना होने या सहसा मरण उपस्थित होने पर पराक्रम रहित (असमर्थ) परिस्थिति में किये जाने वाले मरण को अविचार भक्तप्रत्याख्यान कहते हैं । अर्थात् जब विचार १. भगवती आराधना गाथा ६४ विजयोदया तथा मूलाराधना पृष्ठ १९०,१९१. २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ६०. ३. भगवती आराधना गाथा ७५३ की विजयोदया टीका पृष्ठ ९१६. ४. दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं सविचारमध अविचारं ।
सविचारमणागाहे मरणे सपरक्कमस्स हवे ॥ भगवती आराधना गाथा ६५. ५क. तत्थ अविचारभत्तपइण्णा मरणम्मि होइ आगाहो।
अपरक्कमस्स मुणिणो कालम्मि असंपुहुत्तम्मि ।। वही, २०११. ख. सहसोपस्थिते मरणे पराक्रमरहितस्य अविचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति
वही गाथा ६५ की विजयोदया टीका ६ष्ठ १९२.
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