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________________ उत्तरगुण : १७१ भेद : अनशन तप के दो भेद हैं ( १ ) इत्वरिक ( साकांक्ष या नियतकालिक) तथा (२) यावज्जीवन ( निराकांक्ष या मरणपर्यन्त ) । भगवती आराधना में अद्धानशन और सर्वानशन - इन नामों से अनशन के दो भेद किये हैं । २ सापेक्ष है । काल की इत्वरिक अनशन तप हैं इस दृष्टि से एक चार भक्त वेलाओं १. इत्वरिक अनशन तप : यह साकांक्ष अर्थात् काल मर्यादापूर्वक भोजनाकांक्षा से युक्त होकर अनशन करना । है । वस्तुतः एक दिन में भोजन दो वेलायें मानी गई भोजन वेला में आहार का त्याग एकभक्त कहलाता है । में आहार का त्याग करना चतुर्थभक्त, अर्थात् सामान्यतः दिन में दो समय आहार माना गया है, अतः उपवास के पहले दिन और पारणे के दिन एक समय आहार का ग्रहण और एक समय आहार का त्याग किया जाता है । फिर उपवास के दो समय के भोजन का त्याग —— इस तरह चार समय आहार हुआ— इस प्रकार के उपवास को चतुर्थभक्त कहते है । आगे के निरन्तर उपवासों में दो-दो भक्त जुड़ते जाते हैं । जैसे छह भोजन को बेलाओं में आहार का त्याग छट्ट भक्त ( बेला या दो दिन का उपवास ) कहा जाता है । इसी प्रकार प्रथम दिन की एक, तीन दिनों की छह और पारणा के दिन की एक बेला इस प्रकार आठ वेलाओं के आहार का त्याग होने से अट्ठभक्त या तीन दिन का उपवास (तेला ) कहा जाता है । इसी तरह दशम, द्वादश, चतुर्दश भक्त, मासार्थोपवास, मासोपवास, कनकावली तथा एकावली आदि जो तपोविधान हैं इनमें आहार का त्याग करना इत्वरिक ( साकांक्ष ) अनशन तप है । ३ 7 मूलाचारकार ने इसके अन्तर्गत कनकावली आदि तप का नामोल्लेख किया ५२२ दिन लगते हैं । जिनमें ४३४ है । कनकावली तप की वृहद् विधि करने में उपवास और ८८ पारणा होती हैं । इसमें चलता है अर्थात् वृद्धिक्रम में एक से लेकर तीन उपवास किये जाते हैं । हानिक्रम में सोलह से बार तोन, दो ओर एक उपवास किये जाते हैं । प्रत्येक तथा नमस्कार महामंत्र का त्रिकाल जप करने का विधान है । इसी तप की लघुविधि के अनुसार एक वर्ष तक प्रतिमास के शुक्लपक्ष की एकम, पंचमी तथा हानिक्रम की विधि चौंतीस बा तीनलेकर एक तक तथा नौ अन्तराल में एक पारणा वृद्धिक्रम तथा सोलह तक तथा १. मूलाचार ५।१५० २. अद्धाणसणं सव्वाणसणं दुविहं तु अणसणं भणियं । विहरतस्स य अद्धाणसणं इदरं च चरिमंते ॥ भगवती आराधना २०९. Jain Education International ३. छट्ठट्ठ मदस मदुवादसेहि मासद्धमासखमणाणि । कणगाव आदी तवोविहाणाणि णाहारो ।। मूलाचार ५। १५१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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