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________________ उत्तरगुण : १६९ बाह्य तप: बाह्य द्रव्य के आलम्बन से दूसरों को देखने में आने वाले तप बाह्य तप है। जिस तप की साधना शरीर से विशेष सम्बन्धित हो या जिसके द्वारा शरीर का कर्षण हो जाने से इन्द्रियों का मर्दन हो जाता है वह बाह्यतप है। मूलाचार में कहा है जिनके द्वारा मन में दुष्कृत अर्थात् संक्लेश परिणाम उत्पन्न नहीं होते, जिस तप के करने से आभ्यन्तर तप में श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिनसे पूर्वग्रहीत योग (महाव्रत आदि) हीन नहीं होते-इस प्रकार के बाह्यतपों का अनुष्ठान करना चाहिए । शिवार्य के अनुसार बाह्यतप से सब प्रकार की सुखशीलता छूट जाती है क्योंकि शरीर दुःख का कारण है। उसको छोड़ने का उपाय है शरीर को कृश करना। ऐसा करने से आत्मा संवेग अर्थात् संसारभीरुता नामक गुण में स्थिर होता है। पं० आशाधर ने कहा है कि अनशन आदि तपों को तीन कारणों से बाह्य कहा जाता है-१-बाह्य तप करने में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा रहती है। जैसे भोजन का त्याग करना अनशन, अल्पभोजन करना अवमौदर्य तप कहा जाता है। २-अपने पक्ष और परपक्ष के लोग भी इन्हें देख सकते हैं कि अमुक साधु ने भोजन नहीं किया या अल्पभोजन किया तथा ३-बाह्यतप ऐसे हैं जिन्हें अन्य दार्शनिक, जैसे बौद्धादि तथा कापालिक आदि साधु और गृहस्थ भी करते हैं । इसलिए इन्हें बाह्य तप कहा जाता है।" इस प्रकार बाह्यतप आभ्यंतर (भाव) शुद्धि के चिह्न हैं । अपराजितसूरि ने बाह्यतप को बाह्य-सल्लेखना का साधन माना है। इनकी साधना से श्रमण अपने तन और मन को सहिष्णु बना लेता है । इनसे मन की विशुद्धि, सरलता और एकाग्रता की विशेष साधना होती है तथा आभ्यंतर तप की ओर बढ़ने १. बाह्यद्रव्यापेक्षत्वापरप्रत्यक्षत्पाच्च बाह्यत्वम्-सर्वार्थसिद्धि ९।१९. २. अनगार धर्मामृत ७८. ३, सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कदं ण उट्रेदि । जेण य सड्ढा जायदि जेण य जोगा ण हीयते ॥ मूलाचार ५।१६१. ४. बाहिरतवेण होदि हु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता। सल्लिहिदं च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे ॥ भगवतो आराधना २३७. ५. बाह्यं वल्भाद्यपेक्षत्वात्परप्रत्यक्षभावतः । परदर्शनिपाषण्डिगेहिकार्यत्वतश्च तत् ।। अनगारधर्मामृतज्ञानदीपिका सहित ७६. ६. बाह्यसल्लेखनोपायभूतं षोढा बाह्यतपो-भगवती आराधना विजयोदया गाथा २०८ पृष्ठ ४२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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