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१६८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
तपश्चरण में रत, उपवास और तप से कृशकाय एवं आतापनादि योग और दृढ़ चारित्र से युक्त धीर और गुण सम्पन्न श्रमणों की मुद्रा देखने योग्य होती है । उनके कपोलों (गालों) का मांस सूख जाने से मुख पर केवल भृकुटि और आँखों के तारे चमकते दिखाई देते हैं। शरीर के नाम पर चर्म और हड्डी ही शेष रह गया है फिर भी वे निरन्तर तपश्चरण करते हुए धर्मलक्ष्मी में विराजमान रहते हैं ।
वस्तुतः तपश्चरणादि साधना की सभी विधियाँ चारों गतियों में से एकमात्र मनुष्यगति में ही सम्भव हैं क्योंकि नरक व देवलोक में औदारिक शरीर का उदय तथा पंच महाव्रत नहीं होते। तिर्यञ्च गति में भी महाव्रतादि का पालन असम्भव है । अतः वीतरागता की सिद्धि के लिए धीरे-वीर साधुओं को तप का नित्य संचय करना चाहिए । तप के भेद :
तप आत्मशोधन तथा कर्मक्षय की एक अखंड प्रक्रिया है; किन्तु विधियों और प्रक्रियाओं के आधार पर तप को बाह्य और आभ्यन्तर इन दो रूपों में विभाजित किया गया है। इनमें से कायिक तथा वाचनिक तप बाह्य हैं एवं मानसिक तप आभ्यन्तर है। इनमें से प्रत्येक के निम्नलिखित छह-छह भेद हैं।
१. बाह्य तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेश तथा विविक्तशयनासन-ये बाह्य तप के छह भेद हैं।
२. आभ्यन्तर तप-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-ये छह आभ्यन्तर तप के भेद हैं । १. मूलाचार ९।६३. २. आलीणगंडमंसा पायडभिउडीमुहा अधियच्छा।
समणा तवं चरंता उक्किण्णा धम्मलच्छीए ॥ वही ९।६४. ३. धवला १३१५, ४, ३१ पृष्ठ ९११५. ४. अनगार धर्मामृत ७।१. ५. दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भतरो मुणेयव्वो-मूलाचार ५११४८. ६. बाह्य वाक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम्-मोक्ष पंचाशत ४८ (जैनधर्मसार
-सूत्र २०७ पृष्ट ८७ से उद्धृत) ७क. अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा ।
कायस्स य परितावो विवित्तसयणासणं छटुं । मूलाचार ५।१४९. ८. पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं ।
झाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो । वही ५।१६३.
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