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________________ १६६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन के द्वारा शीघ्र ही नष्ट किया जा सकता है। आचार्य वट्ट केर ने कहा है कि जैसे अग्नि हवा के द्वारा तृण और काष्ठादि को जलाती है वैसे ही ज्ञानरूपी हवा से युक्त शील, समाधि और सयम से प्रज्वलित तपरूपी अग्नि संसाररूपी बीज को जलाती है। तथा जैसे मिट्टी आदि युक्त स्वर्ण धातु अग्नि में तपाये जाने पर विशुद्ध हो जाती है वैसे ही जीव तप के द्वारा कर्मों को जलाकर स्वर्ण के के समान विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। तप का स्वरूप और महत्त्व : श्रमण संस्कृति तप-प्रधान मानी जाती है। श्रमण शब्द स्वयं में महान् तपस्वी साधु का द्योतक है। इसीलिए श्रमण शब्द की परिभाषा के विषय में कहा है कि जो आत्मा को साधना के लिए श्रम करता है अर्थात् तपःसाधना से शरीर को खेदखिन्न करता है वह श्रमण कहा जाता है। तप के स्वरूप-प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि पंचेन्द्रिय विषय और क्रोधादि चार कषायइनका विनिग्रह करके ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मचिन्तन करना तप है। भगवती आराधना के अनुसार अकर्तव्य के त्यागरूप चारित्र में जो उद्योग और उपयोग किया जाता है वह तप है।" धवला में कहा है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रय को प्रकट करने के लिए इच्छा का निरोध तप है। भट्ट अकलंकदेव के अनुसार भी कर्मक्षय के लिए जो तपा जाय वह तप है।" मूलाचारवृत्ति में भी इसी तरह कहा है कि कर्मक्षय के लिए शरीर और इन्द्रियों को तप्त करना तप है।' जयसेनाचार्य के अनुसार-रागादि समस्त १. चिरकालमज्जिदं पि य विहुणादि तवसा रयत्ति गाऊण-मूलाचार ५.५८. २. मूलाचार ८1५७. ५६. ३. (क) श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः । -सूत्रकृतांग शीलांक कृत टीका १११६. (ख) श्राम्यन्त्यात्मानं तपोभिरिति श्रमणाः मूलाचारवृत्ति ९।१२०. ४. विसयकसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसज्झाए । जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ॥ बारस अणुवेक्खा ७७. ५. चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो आउजणा य जो होई। __ सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स ।। भगवती आराधना १०. ६. तिण्णं रयणाणमाविब्भावट्ठमिच्छाणिरोहो-धवला १३१५।४, २६१५४।१२. ७. कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः -तत्वार्थवार्तिक ९।६।१७ पृष्ठ ५९८, ८. तपः कर्मक्षयार्थ तप्यन्ते शरीरेन्द्रियाणि तपः -मूलाचारवृत्ति ११॥५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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