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तप
तप जैन साधना-पद्धति का प्राण है । भव-भव से संचित कर्मों को सम्पूर्ण रूप से दग्ध करने तथा भवसागर से सदा के लिए मुक्त होने का यह प्रबल और महत्त्वपूर्ण साधन है । जैन साधना पद्धति के प्रमुख चार अंग हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक् तप। इनमें सम्यक् तप का अपना विशिष्ट स्थान और महत्त्व है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार उपयुक्त चारों अंगों से संयम होता है तथा इनका समागम होने पर जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन में कहा है-आत्मा ज्ञान से जीवादि भावों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्मास्रव का निरोध करता है, और तप से विशुद्ध होता है । सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिए महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
यद्यपि उत्तमक्षमा आदि श्रमण के दस धर्मों में तप भी अन्तभूत है किन्तु तप को विशेष रूप से निर्जरा का कारण बताने के लिए तथा संवर के सभी हेतुओं में तप की प्रधानता सूचित करने के लिए श्रमणाचार में तप का स्वतंत्र रूप से विधान किया गया है । तप के द्वारा नूतन कर्मबन्ध रुककर पूर्वोपचित कर्मों का क्षय होता है; क्योंकि तप से अविपाक (सकाम) निर्जरा होती है । जैसे एक ही अग्नि पाक और भस्मक्रिया आदि अनेक कार्य करती है उसी प्रकार तप से कर्मों का क्षय तथा देवेन्द्र आदि अभ्युदय स्थानों को प्राप्ति होती है । जैन परम्परा में तपक्रिया का मुख्य लक्ष्य कर्मक्षय है तथा अभ्युदय की प्राप्ति आनुषांगिक (गौण) है।३ तप के द्वारा जीव पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करके व्यवदान अर्थात् विशुद्धि को प्राप्त होता है; क्योंकि चिरकाल से संचित कर्मरज को तप
१. णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संयमगुणेण ।
चाहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्टो ॥ सणपाहुड गाथा ३०. २. नाणेण जाणई भावे दंसणण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ तयेण परिसुज्झई ।। खवेत्ता पुव्वकम्माइं संजमेण तवेण य ।
सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमन्ति महेसिणो ।। उत्तराध्ययन २८।३५,३६, ३. तत्वार्थवार्तिक ९।३।१-५ पृष्ठ ५९२-५९३. ४. तवेण वोदाणं जणयइ-उत्तराध्ययन २९।२७.
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