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१६४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
तथा ८४००००x१० = ८४००००० अर्थात् चौरासी लाख उत्तरगुण हुए।' दसण पाहुड की टीका तथा आशाधरकृत जिनसहस्रनाम की श्रुतसागरीय टीका आदि ग्रन्थों में भी शील के भेदों का विभाजन इसी प्रकार मिलता है। अन्तर मात्र इतना है कि इनमें शुद्धि (प्रायश्चित्त) के दस भेदों के स्थान पर क्षमादि दस धर्मों की गणना करके उत्तरगुणों के चौरासी लाख भेद बताये गये हैं।
मूलाचार में गुणों के उत्पत्ति-प्रकारों की विधि बताते हुए कहा है-हिंसा से विरत, अतिक्रमण दोष से रहित, पृथ्वी और पृथ्वीकायिक के साथ पुनः आरम्भ (विराधना) के विषय में संयत, स्त्रीसंसर्ग से विरक्त, आकंपित दोषों से रहित तथा आलोचना शुद्धि युक्त जो श्रमण संयमी, धीर, वीर होता है उसे प्रथम अहिंसा गुण होता है। इसी प्रकार दूसरे गुण की उत्पत्ति के लिए इस प्रकार उच्चारण होगा कि असत्य भाषण रहित, अतिक्रमण दोषकरण से रहित इत्यादि पूर्वोक्त प्रकार से कथन करने से द्वितीय सत्य गुण सिद्ध होता है । इस तरह आगेआगे चौरासी लाख बार उच्चारण करते जाने से चौरासी लाख गुणों(उत्तरगुणों) को उत्पत्ति सिद्ध होती है। इस प्रकार मूलाचारकार ने उत्तरगुणों की उत्पत्ति बताते हुए उनकी चौरासी लाख भेद संख्या मानी है। जयसेनाचार्य कृत प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में कहा है कि इन मूलगुणों की रक्षा के लिए बाईस परीषहजय और बारह प्रकार के तप-इस तरह चौंतीस उत्तरगुण होते हैं। उनकी भी रक्षा के लिए देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों पर विजय और बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं की भावना आदि की जाती है । ३ उपर्युक्त उत्तरगुणों में सर्वप्रथम तप का विवेचन प्रस्तुत है।
१. (क) सव्वेपि पुव्वभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेक्केसु ।
मेलंतेत्तिय कमसो गुणिदे उप्पज्जदे संखा ।। मूलाचार १११२०. (ख) एतैः पूर्वोक्तानि अष्टलक्षाम्यधिकचत्वारिंशत्सहस्राणि गुणितानि चतुरशीतिलक्षसावधविकल्पा भवन्ति तद्विपरीतास्तावत एव गुणा भवंतीति।
-मूलाचारवृत्ति ११।१६. २. दंसणपाहुड टीका ९।१।१८ तथा जिनसहस्रनाम (आशाधर कृत)
-श्रुतसागरीय टीका, षष्ठ एवं दशम शतक । ३. तेषां च मूलगुणानां रक्षणार्थं द्वाविंशतिपरीषहजयद्वादशविधतपश्चरण भेदेन
चतुस्त्रिशदुत्तरगुणा भवन्ति । तेषां च रक्षणार्थं देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृत चतुर्विधोपसर्गजय द्वादशानुप्रेक्षाभावनादयश्चेत्यभिप्रायः ।
-प्रवचनसार गाथा २०८, २०९ की तात्पर्यवृत्ति पृष्ठ ४०७.
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