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उत्तरगुण : १६३ उपर्युक्त भेदों का विशेष कथन इस प्रकार है
१. हिंसादिक इक्कीस दोष'-प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तग्रहण, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, मनोमंगुल, वचन मंगुल, काय मगुल (यहाँ मंगुल से तात्पर्य पाप संचय करने वाली क्रिया है ), मिथ्यादर्शन, प्रमाद, पैशन्य, अज्ञान और इन्द्रिय-अनिग्रह ।
२. अतिक्रमण, व्यतिक्रमण, अतिचार और अनाचार-ये चार दोष-यहाँ अतिक्रमण से तात्पर्य है विषयों की अभिकांक्षा, व्यतिक्रमण अर्थात् विषयोपकरणों के अर्जन का भाव, अतिचार अर्थात् व्रतों में शिथिलता या असंयम का किञ्चित् भी सेवन तथा अनाचार से तात्पर्य है व्रतभंग या सर्वथा स्वेच्छा प्रवृत्ति ।
३. पृथ्वोकायिक आदि के सौ भेद-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, अनन्तकायिक या साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय--इन दस भेदों का परस्पर गुणन करने पर (१०x१० = १००) कायिक सम्बन्धी सो भेद हो जाते हैं।
अब्रह्म (शील विराधना) संबंधी बस दोष : स्त्रीसंसर्ग, प्रणीतरसभोजन, गन्धमाल्य संस्पर्श, शयनासन, आभूषण, गीतवादित्र, अर्थसंप्रयोग (स्वर्णादिक धन की अभिलाषा), कुशीलसंसर्ग, राजसेवा और रात्रिसंचरण ।
५. आलोचना के दस दोष" : आकंपित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी।
६. शुद्धि (प्रायश्चित) के बस भेद : आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान-ये दोषों की शुद्धि के दस भेद हैं।
उपर्युक्त सभी दोषों से विपरीत गुण होते हैं। इन सबका परस्पर में गुणन करने पर चौरासी लाख उत्तरगुण होते हैं। वे इस तरह हैं-२१४ ४ = ८४, ८४४१०० = ८४००,८४००x१० = ८४०००,८४०००x१० - ८४००००
१. वही ११।९, १०. २. अदिकमणं वदिकमणं अदिचारो तहेव अणाचारो।
एदेहि चहिं पुणो सावज्जो होइ गुणियव्वो ।। वही ।।११।११ ३. वही ११।१२. ४. मूलाचार ११११३-१४ । ५. वही ११।१५, स्थानांग १०७०, निशीथ भाष्य भाग ४ पृ० ३६३. ६. वही ११।१६.
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