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१६२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
योग्य नहीं है, क्योंकि मूलगुणों के अनन्तर पालन किये जाने वाले उत्तरगुणों में दृढ़ता इन्हीं मूलगुणों के निमित्त से ही प्राप्त होती है ।
उत्तरगुण के भेद :
मूलगुणों की अट्ठाईस संख्या निर्धारित है । उत्तरगुणों के भेदों की कोई एक निर्धारित संख्या नहीं है क्योंकि मूलगुणों के अनन्तर श्रमण के पालन योग्य सभी गुणों को उत्तरगुण कहा जा सकता है । मूलगुणों के अतिरिक्त बाद के सभी गुण या व्रत योगादि उत्तर - गुणों के अन्तर्गत आ जाते हैं । तभी तो उत्तरगुणों की भेद संख्या चौरासी लाख तक मानी गई है । सामान्यतः बारह तप, बाईस परीषह, बारह भावनायें, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य - ये पाँच प्रकार के आचार, उत्तमक्षमा आदि दसघमं तथा शील आदि ये सब उत्तरगुणों के अन्तर्गत माने जाते हैं । कुन्द० मूलाचार में बारह तप और बाईस परोषह — इन दोनों को मिलाकर चौंतीस प्रकार के उत्तरगुणों का उल्लेख मिलता है ।' नयचक्र में तप और परीषहों के साथ पाँच प्रकार के आचार को उत्तरगुणों की संज्ञा दी है । 2 तथा मूलाचार के ही शीलगुणाधिकार में वर्णित अट्ठारह हजार शीलों या चौरासी लाख गुणों को भी उत्तरगुण कहा जाता है ।
मूलाचार में शील के अट्ठारह हजार भेदों का वर्णन इस प्रकार है 3 - योग के तीन भेद, करण के तीन भेद, चार प्रकार की संज्ञायें, पाँच इन्द्रियाँ, दस प्रकार के पृथ्वीकायिक आदि जीव तथा दस प्रकार के उत्तम क्षमा आदि श्रमण धर्म --- इन सबको परस्पर गुणित करने पर अट्ठारह हजार भेद हो जाते हैं। यथा - ३ x ३ × ४× ५ × १०×१० = १८००० शील के भेद ।
चौरासी लाख गुणों की उत्पत्ति का कारणक्रम इस प्रकार वर्णित हैहिसादिक इक्कीस दोष, अतिक्रमणादि चार दोष, पृथ्वीकायिक आदि के सौ, अब्रह्म के दस दोष, आलोचना दस दोष तथा शुद्धि (प्रायश्चित्त) के दस भेदों से विपरीत दस दोष * - इस तरह इन सब दोषों से विपरीत गुणों का परस्पर
गुणन करने पर चौरासी लाख गुण सिद्ध होते हैं ।
१. तवपरिसहादि भेदा चोत्तीसा उत्तरगुणक्खा – कुन्द० मूलाचार १.३ पृष्ठ २. २. तवपरिसहाण भेया गुणा हु ते उत्तरा य बोहव्वा ।
दंसणणाणचरितं तव वीरियं पंचहायारं ॥ नयचक्र गाथा ३३६.
३. जोए करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि समणधम्मे य ।
अण्णोहि अभत्था अट्ठारहसीलसहस्साइं || मूलाचार ११।२. ५. इगिवीस चतुर सदिया दस दस दसगा य आणुपुवीय | हिंसादिक्कमका या विराहणालोयणासोही
।। मूलाचार १११८.
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