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________________ उत्तरगुण श्रमण के जिन अट्ठाईस मूलगुणों का विवेचन द्वितीय अध्याय में किया गया उनके उत्तरवर्ती पालन योग्य नियमोपनियम तथा योगादि अनेक गुण हैं जिन्हें उत्तरगुण कहते हैं। इनके माध्यम से श्रमण आत्मध्यान और तपश्चरण करके आध्यात्मिक विकास को शक्ति प्राप्त करता है तथा गुणस्थान प्रणाली में कर्मक्षय करता हुआ निर्वाण पद को प्राप्त करता है । अपराजितसूरि ने उत्तरगुण की परिभाषा में कहा है कि व्रतों के अनन्तर अर्थात् उत्तर काल में जिनका पालन किया जाता है उन अनशन आदि तपों को उत्तरगुण कहते हैं।' सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान के उत्तरकाल में चारित्र को उत्पत्ति होती है अतः चारित्र अर्थात् संयम को उत्तरगुण कहते हैं ।२ जिसने संयम धारण किया है उसको सामायिक आदि तथा अनशन आदि भी होते हैं अतः सामायिकादि तथा अनशनादि तप को उत्तरगुण संज्ञा प्राप्त है । वस्तुतः श्रमण आगामी कर्मों के संवर तथा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा हेतु उत्तरगुणों का पालन करते हैं। आतापन आदि त्रिकालयोग भी उत्तरगुण हैं । सकलकीर्ति के इस कथन से मूलगुणों और उत्तरगुणों का परस्पर सम्बन्ध सिद्ध है कि जिस प्रकार नूलरहित वृक्ष किसी प्रकार के फल उत्पन्न नहीं कर सकते उसी प्रकार मूलगुणों से रहित समस्त उत्तरगुण कभी फल देने वाले नहीं हो सकते। उत्तरगुण प्राप्त करने के लिए जो मूलगुणों का त्याग कर देते हैं वे तो मानो अपने हाथ की अंगुलियों की रक्षार्थ अपना ही शिरच्छेद कर देते हैं । इस प्रकार श्रमण जीवन में आत्मिक उत्कर्ष की दृष्टि से उत्तरगुणों के पालन को अपनी महत्ता है किन्तु मूलगुणों के मूल्य पर मात्र उत्तरगुणों की रक्षा १. व्रतोत्तरकालभावितत्वादनशनादिकं उत्तरगुण इति उच्यते -भगवती आराधना विजयोदया टीका गाथा ११६ पृष्ठ २७७ २. सम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यामुत्तरकालभावित्वात्संयमः उत्तरगुणशब्देनोच्यते । -वही, पृष्ठ २७३. ३. परिगृहीतसंयमस्य सामायिकादिकं अनशनादिकं च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च-वही पृष्ठ २७७. ४. कृत्स्नोत्तरगुणा यस्माद्धीनाः मूलगुणैः सताम् ।। परं फलं न कुर्वन्ति मूलहीना यथाघ्रिपाः ॥ यत्रोत्त गुणाद्याप्त्यै त्यजन्ति मूलसद्गुणान् । ते करांगुलिकोट्यर्थ छिदन्ति स्वशिरः शठाः ॥ -मूलाचारप्रदीप ४।३१४, ३१५ पृष्ठ १७७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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