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१५६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन टालना शक्य नहीं। इसलिए निर्ग्रन्थ रात को भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ?' और फिर रात्रिभोजन का निषेध तो श्रावकों तक के लिए है तब श्रमणों को तो इसका निषेध स्वभावतः है ही। एकभक्त मूलगुण के विधान से रात्रिभोजन व्रत को मूलगुणों में सम्मिलित नहीं किया । उत्तराध्ययन में विचक्षण भिक्षु को दिन के चार भाग करने का निर्देश है । इसके अन्तर्गत प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचारी और चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करने को कहा गया है । इस प्रकार सभी तीर्थंकरों ने संयम के अनुकूल वृत्ति और देह पालन के लिए एकभक्त रूप नित्य तपःकर्म का श्रमणों को उपदेश दिया।
उपसंहार : लोच से लेकर एकभक्त तक के शेष सात मूलगुण श्रमण के बाह्य चिह्न माने जाते हैं । अन्तरंग कषाय मल की विशुद्धि के लिए बाह्य क्रियाओं (आचरण) की शुद्धता का भी महत्वपूर्ण स्थान है।५ अतः ये गुण जीवन की सहजता, स्वाभाविकता के प्रतीक है । श्रमण को प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने, अपने को और अपने शरीर को कष्टसहिष्णु बनाने तथा लोकलज्जा और लोकभय से ऊपर उठने के लिए ये महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान करते हैं । बाह्य जीवन में असुन्दर की भी सर्वात्मभावेन स्वीकृति इनसे सघती है। इन गुणों से युक्त जीवन भी अपने आप में उत्कृष्ट एवं कठिन तपश्चर्या का प्रतीक है । इनके माध्यम से कष्टसहिष्णुता, चारित्र पालन, परीषह सहन और तपश्चरण आदि में सहजता तथा आत्मिक विकास को निरन्तर गतिशीलता प्राप्त होती रहती है । इन गुणों से श्रमण को प्रतिपल भेद-विज्ञान की यह प्रतीति होती रहती है कि यह शरीर आत्मा से भिन्न है और इसे सुविधावादिता की अपेक्षा जितना सहज रखा जायेगा आत्मोपलब्धि में उतनी ही वृद्धि होती रहेगी।
उपर्युक्त अट्ठाईस मूलगुणों के पालन से श्रमण को आवश्यकतायें अत्यन्त सीमित हो जाती हैं। इनका अप्रमत्त भाव से पालन करके श्रमण जगत्पूज्य होकर अक्षय-सुख (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है । मूलाचारप्रदीप में कहा हैये सर्वोत्कृष्ट और सारभूत हैं तथा जिनेन्द्रदेव ने इनको तपश्चरण आदि महायोगों
१. दशवकालिक ६।२३, २४. २. मूलाचार ५१९८-९९. ३. उत्तराध्ययन २६।११, १२. ४. अहो निच्चं तवोकम्म सव्वबुद्धेहिं वणियं ।
जा य लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं ।। दशवकालिक. ६।२२. ५. मता बहिः क्रियाशुद्धिरन्तर्मलविशुद्धये- भगवतीआराधना संस्कृत
पद्य १३९६.
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