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________________ मूलगुण : १५५ एकभक्त (एयभत्त): दिन में एक बार निर्धारित समय पर आहार ग्रहण करना एकभक्त नामक अट्ठाईसवाँ मूलगुण है। सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी व्यतीत होने पर तथा सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पूर्व तक, दिन के मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त काल में एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त मूलगुण है।' उपर्युक्त निर्धारित समय के अन्दर एक मुहूर्त में आहार लेना उत्कृष्टाचरण, दो मुहूर्तों में मध्यमाचरण तथा तीन मुहूर्त में आहार ग्रहण करना जघन्याचरण माना है। प्रवचनसार में कहा है ऊनोदर ( भूख से कम ), यथालब्ध ( जैसा प्राप्त हो वैसा ), दोष रहित तथा रस की अपेक्षा रहित भिक्षावृत्ति पूर्वक दिन में एक बार प्राप्त युक्ताहार ग्रहण करना चाहिए। वैसे भी संयम, ज्ञान, ध्यान, अध्ययन एवं साधना की वृद्धि के लिए जैसा मिले वैसा ही शुद्ध रूप में आहार लेना श्रमण को अपेक्षित है। इसकी पूर्ति दिन में एक बार ग्रहण किये सीमित आहार से ही हो जाती है । एकाधिक बार आहार ग्रहण से तो शिथिलाचार में ही प्रवृत्ति बढ़ती है। अमृतचंद्रसूरि ने कहा है कि दिन के प्रकाश में एक बार आहार ग्रहण करना ही युक्ताहार है। क्योंकि उतने से ही श्रामण्य पर्याय का सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है । जबकि शरीर के अनुराग से अनेक बार आहार ग्रहण अत्यन्त हिंसायतन (आत्यन्तिक हिंसा का स्थान ) रूप होने के कारण युक्ताहार नहीं है । दिन में आहार ग्रहण इसलिए अच्छा कहा गया क्योंकि उसे सम्यक् रूप से देख-भालकर ग्रहण किया जा सकता है। अदिवस (दिन के अतिरिक्त अन्य समय) में आहार को सम्यक् देखा नहीं जा सकता। इसलिए वह अनिवार्य रूप में हिंसायतन है तथा ऐसे आहार के सेवन से अन्तरंग अशुद्धि व्यक्त होती है । ___दशवकालिक के अनुसार जो त्रस और स्थावर सूक्ष्म प्राणी हैं, उन्हें रात्रि में नहीं देखता हुआ निर्ग्रन्थ एषणा कैसे कर सकता है ? उदक से आई और बीजयुक्त भोजन तथा जीवाकुल मार्ग दिन में टाला जा सकता है पर रात में १. उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेय भत्तं तु ॥ मूलाचार ११३५. २. एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ।। प्रवचनसार २२९, ३. रयणसार ११३. ४. प्रवचनसार गाथा २२९ की तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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