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________________ १५४ : मूलाचार को समीक्षात्मक अध्ययन मुनि के लिए दन्त प्रक्षालन अनाचार के रूप में स्वीकार किया है। सूत्रकृतांग में कहा है कि मुनि दातोन से दांतों का प्रक्षालन न करे-उन्हें न धोए । 'दशवकालिक सूत्र में भी दंत-प्रधावन और दंतवन को अनाचार कहा है । निशीथसूत्र में कहा है कि विभूषा के लिए अपने दांतों को एक दिन या प्रतिदिन घिसने, प्रक्षालन करने, प्रधावन करने, रंगने आदि से भिक्षु दोष का भागी होता है । इस प्रकार संयम की रक्षार्थ मुनि इस मूलगुण का पालन करते हैं। स्थितभोजन (ठिदिभोयण): । शुद्धभूमि में खड़े होकर आहार ग्रहण करना स्थितभोजन है । दीवाल, स्तम्भादि के आश्रय के बिना, समपाद खड़े होकर तीन प्रकार की भूमि (पैर रखने की भूमि, जूठन गिरने की भूमि एवं आहारदाता के खड़े होने की भूमि) की शुद्धिपूर्वक अपने हाथ के अंजुलिपुट (पाणिपात्र) में आहार ग्रहण करना स्थितभोजन नामक सत्ताईसवाँ मूलगुण है । इसके अनुसार श्रमण को अशन, पान, खाद्य, भोज्य, लेह्य, और पेय-इन सभी प्रकार के आहारों को शुद्धतापूर्वक हस्तपात्र में खड़े होकर ग्रहण करने का विधान है ।' जब मुनि खड़े-खड़े अंजुलि पुट बनाकर उसी से आहार लेते हैं तब स्वयं अपने हाथ से कोई वस्तु उठाकर, पात्र विशेष में, दूसरों के हाथों से, बैठ कर अथवा लेटकर आहार ग्रहण करने का निषेध भी सिद्ध हो जाता है। इस तरह प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम के पालन हेतु जब तक श्रमण के हाथ-पैर चलते हैं अर्थात् शरीर में सामर्थ्य है तब तक खड़े होकर पाणिपात्र में आहार ग्रहण करना चाहिए अन्य विशेष पात्रों में नहीं । १. णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, वमणं, णो विरेयणं, णो धूवणे, णो तं परियाविएज्जा-सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध ११५९ (अंगसुत्ताणि भाग १ पृष्ठ ३६५. २. दशवकालिक ३।३. ३. धूव-णेत्ति वमणे य वत्थीकम्म विरेयणे । अंजणे दंतवणे य गायाभंगविभूसणे ॥ वही ३।९. ४. निशीथसूत्र १५।१३०-१३१.. ५. अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइविवज्जणेण समपायं ।। पडिसुद्ध भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम ॥ मूलाचार ११३४ असणं जदि वा पाणं खज्ज भोजं च लिज्ज पेज वा। पडिलेहिऊण सुद्धं भुजंति पाणिपत्तेसु ॥ वही ९।५४. ७. मूलाचारवृत्ति ११३४. ८. मूलाचारवृत्ति ११३४, अनगारधर्मामृत ९।८३ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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