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मूलगुण : १५३ का किचित् भी संस्कार नहीं करते ।' मुख, नेत्र और दाँतों का प्रक्षालन, शोवन, उद्वर्तन ( सुगन्धित द्रव्य से उबटन ), पाद पक्षालन, संवाहन ( अंगमर्दन ), ( मुष्टि से शरीर दबाना) और शरीर-संस्थापन ( काष्ठ - पंत्र से शरीर पीड़न) मुनि नहीं करते । तथा धूपन ( शरीर के अवयवों को धूप से सुगंधित करना) 2 अथवा रोग की आशंका व शोक आदि से बचने के लिए, मानसिक- आह्लाद के लिए धूप का प्रयोग रे, वमन, विरेचन ( औषधि आदि के द्वारा मलद्वार से मल दूर करना अर्थात् जुलाब द्वारा मल को दूर करना ), अंजन ( नेत्रों में काजल लगाना), अभ्यंग ( सुगंधित तेल से शरीर संस्कार), लेपन ( चन्दनादि का शरीर पर लेपन), नासिकाकर्म, वस्तिकर्म ( शलाका, वर्तिका आदि की क्रिया अर्थात् अपान-मार्ग के द्वारा स्नेह का प्रक्षेप) शिरावेध ( नसों को लोही से वेधकर रक्त निकलना) आदि कार्य भी मुनि अपने शरीर संस्कार के निमित्त कभी नहीं करते ।
उपर्युक्त सभी प्रकार के शारीरिक संस्कारों के निषेध में "दन्तधोवण " शब्द से दाँतों के प्रक्षालन का निषेध किया गया है । तथा छब्बीसवें मूलगुण के रूप में इसे अदंतघंसण ( अदन्तघर्षण ) या अदंतमण ( अदन्तमन) शब्द से अभिहित किया गया है ।" इसके स्वरूप प्रतिपादन के प्रसंग आचार्य वट्टकेर ने कहा है कि मुनिजन इन्द्रियसंयम की रक्षा के लिए इस मूलगुण का पालन करते हैं । वे अंगुली, नख, अवलेखनी (दन्तकाष्ठ या दातौन), कलि - (तृण विशेष ) पाषाण और छाल ( त्वक् या वल्कल ) - - इन सबके द्वारा तथा इनके ही समान अन्य साधनों के द्वारा दन्तमल का शोधन नहीं करते । श्वेताम्बर परम्परा में
१. ण करंति किंचि साहू परिसंठप्पं सरीरम्मि - मूलाचार ९।७०. २. 'धूवणं' धूपनं शरीरावयवानामुपकरणानां च धूपेन संस्करणम् - मूलाचारवृत्ति ९ । ७२.
धूवणेत्ति नाम आरोग्गपडिकम्मं करेइ घूमंपि, इमाए सोगाइणो न भविस्संति - जिनदास महत्तरकृत दशवैकालिक चूर्णि पृ० ११५.
४. विरेचनमौषधादिनाधोद्वारेण मलनिहरणम् -- मूलाचारवृत्ति ९।७२. ५. अंजनं नयनयोः कज्जलप्रक्षेपणम् - वही.
६. वस्तिकर्म शलाकात्तिकादिक्रिया - वही.
७. शिरावेधः शिराभ्यो रक्तापनयनम् — वही. ८. मूलाचार ११३, ३३.
९. अंगुलिणहावलेहणिकलीहि पासाणछलियादीहि ।
दंत मला सोहण
३.
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संजमगुत्ती
अदंतमणं ॥ मूलाचार ११३३.
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