SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन धारण करते हैं और प्रातः होने पर उसे समाप्त कर देते हैं । योग से तात्पर्य शुद्ध चिद्रूप में यथाशक्ति चिन्ता का निरोध अर्थात् शुद्धोपयोग है । साधु रात्र में उपयोग की शुद्धता के लिए रात्रियोग धारण करते हैं । इसके लिए आरामदायक शयनासन नहीं अपितु प्रासुक भूमि प्रदेश में शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है । शयन से ब्रह्मचर्य महाव्रत में दृढ़ता, निद्राविजय, राग एवं प्रमाद की हानि तथा उत्कृष्ट संवेग प्रकट होता है । जबकि कोमल शय्या दोषोत्पादक गाढ़ निद्रा लाने वाली है । योगियों के लिए यह निद्रा समस्त प्रमादों में प्रबल प्रमाद है । अतः श्रमण को आत्मसिद्धि के लिए ऊनोदर और भूशयन आदि के द्वारा निद्रा पर विजय प्राप्त करना चाहिए । यह मूलगुण धर्मध्यान और शुक्लध्यान आदि योग साधना का कारण तथा योगादि से उत्पन्न परिश्रम को शांत करने का उपाय है । १ मूलाचार तथा परवर्ती ग्रन्थों में वर्णित इस मूलगुण के स्वरूप को देखने से ज्ञात होता है कि बाद में इसके प्रतिपादन में परिवर्तन हुआ । मूलाचारकार आदि ने जहाँ असंस्तरित प्रासुक भूमि प्रदेश में शयन करने को कहा वहाँ वृत्तिकार वसुनन्दि ने इस विधान के समर्थन के साथ हो यह भी लिखा कि जिसमें बहुसंयम विधात न हो ऐसा आत्मप्रमाण तृणमय, काष्ठमय, शिलामय संस्तर भी शयन के लिए हो सकता है । अनगार धर्मामृत में कहा है कि साधु को तृण आदि के आच्छादन से रहित भूमि प्रदेश अथवा अपने द्वारा मामूली सी आच्छादित भूमि में, जिसका परिणाम अपने शरीर के बराबर हो अथवा तृण आदि की शय्या पर न ऊपर को मुख करके और न नीचे को मुख करके सोन चाहिए 13 अदन्तघर्षण (अवंतमण या अदन्तधावन ) : शरीर विषयक संस्कार श्रमण को पूर्णतः निषिद्ध हैं । अतः अपने शरी १. मूलाचार प्रदीप ४।२७९-२८५. २. येन संयमविघातो च भवति तस्मिन् तृणमये शिलामये भूमिप्रदेशे च संस्तरे - मूलाचारवृत्ति १।३२. ३. अनुत्तानोऽनवाङ् स्वप्याद् भूदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । स्वमात्रे संस्तृतेऽल्पं वा तृणादिशयनेऽपि वा ॥ अनगारधर्मामृत ९।९१. ४. मुहणायणदंतधोवणमुग्वट्टण पादधोयणं चेव । संवाहण परिमद्दण सरीरसंठावणं सव्वं ॥ धूवणं वमण विरेयण अंजणं अब्भंग लेवणं चेव । त्य वत्थियकम्मं सिरवेज्झं अप्पणो सव्वं ॥। मूलाचार ९।७१, ७२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy