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________________ मूलगुण : १५१ सांसारिक क्रियाओं से पूर्णतः विरत रहना, एकान्तवास करना, निरन्तर ध्यान, अध्ययन, मनन-चिंतन में लगे रहना आदि रूप में श्रमणों का जीवन प्राकृतिक होता है । सभी क्रियायें नियमबद्ध होने से उनके शरीर की धातु, उपधातु आदि सभी प्राकृतिक अवस्था में रहते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें स्नानादि की आवश्यकता ही नहीं रहती । इसलिए साधारण गृहस्थों को कठिन प्रतीत होने वाले अस्नान मूलगुण का पालन श्रमण सहज रूप में कर लेते हैं । क्षितिशयन (खिदिसयण) : मनुष्य पर्याय की दुर्लभता एवं उसके मूल्य को श्रमण अच्छी तरह जानते हैं । वे अल्पकाल ही निद्रा में व्यतीत करते हैं। निद्रा-विजयी होने का अर्थ भी अनावश्यक नींद न लेना है। ताकि जीवन में प्रमाद न आ सके । इस दृष्टि को ध्यान में रखकर सामान्यतः पर्यङ्क, विस्तर आदि का सर्वथा वर्जन करके शुद्ध भूमि में शयन करना क्षितिशयन या भूमिशयन है। मूलाचार में कहा हैआत्मप्रमाण, असंस्तरित (विस्तर रहित), एकान्त, प्रासुक (जीव-जन्तु रहित विशुद्ध) भूमि में धनुर्दण्डाकार मुद्रा में एक पार्श्व (करवट) से शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है।' शयन मुद्राओं के विषय में कहा है कि मुनि को औंधे (उल्ट) या सीधे (ऊपर मुख, पेट तथा पूरे हाथ-पैर पसारकर) नहीं सोना चाहिए अपितु दायें या वायें किसी एक पार्श्व से पैर समेटकर धनुषाकार मुद्रा में लेटकर सोना चाहिए । इससे चारित्र पालन में बाधा उपस्थित नहीं होती। आचारांग में कहा है कि शयन के पूर्व श्रमण को सिर से पैर तक पूरे शरीर को प्रमाजित करके यत्नाचारपूर्वक शयन करना चाहिए । अर्धरात्रि से दो घड़ी पहले और दो घड़ी बाद-चार घड़ी का समय स्वाध्याय के अयोग्य माना गया है। अतः साधुजन थोड़े समय को योगनिद्रा द्वारा शारीरिक थकान को दूर करने के लिए क्षणयोग निद्रा ग्रहण करते हैं । वस्तुतः निद्रा भी योग के तुल्य है। क्योंकि निद्रा में इन्द्रिय, आत्मा, मन और श्वास सूक्ष्म अवस्था रूप हो जाते हैं । अतः प्रतिदिन रात्रि में साधुजन रात्रियोग को १. फासुयभूमिपएसे अप्पमसंथारिदम्हि पच्छण्णे । दंडंधणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण ।। मूलाचार ११३२, २. मूलाचारवृत्ति ११३२. ३. आचारांग २।३।१०८. ४. अनगार धर्मामृत ९७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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