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१५० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन कूटना) आदि का त्याग कर देना चाहिए । जल्ल लिप्त, रूक्ष, लोच से विकृत, नख, रोम आदि से युक्त शरीर को ब्रह्मचर्य की गुप्ति कहा है ।' शरीर संवर्धन तथा विभूषा के लिए विविध साधनों का प्रयोग ब्रह्मचर्य के लिए घातक माना जाता है । जिसकी मनोवृत्ति विभूषा करने की होती है, वह शरीर को सजाता है फलतः वह स्त्रीजन के द्वारा प्रार्थनीय होता है। स्त्रियों की प्रार्थना पाकर वह ब्रह्मचर्य में संदिग्ध हो जाता है। उसे ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है। इससे ब्रह्मचर्य का विनाश होता है और वह केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ विभूषानुपाती न बने । २ क्योंकि नग्न, मुंडित और दीर्घ रोम और नख वाले ब्रह्य चारी श्रमण के लिए विभूषा से क्या प्रयोजन ? इसीलिए मुनि शीत या उष्ण जल से स्नान नहीं करते । वे जीवनपर्यन्त घोर अस्नान व्रत का पालन करते हैं । २ दशकालिक चूणि में कहा है कि सुक्ष्म प्राणी की भी जहाँ हिंसा न होती हो, तब भी स्नान नहीं करना चाहिए । क्योंकि स्नान करने से ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है, अस्नान रूप काय-क्लेश तप नहीं होता और विभूषा का दोष लगता है। जो रोगी या निरोगी साधु स्नान करने की अभिलाषा करता है उसके आचार का उल्लंघन तथा उसका संयम परित्यक्त होता है। गर्मी से पीड़ित होने पर भी मेधावी मुनि को स्नान की इच्छा, जल से शरीर का सिंचन तथा पंखे आदि से हवा नहीं करनी चाहिए।
जिनका आहार-विहार अप्राकृतिक होता है स्नानादि की उन्हें आवश्यकता होती है । श्रमण की आहार-विहार आदि जीवन-पद्धति पूर्णतः प्राकृतिक होती है। दिन में मात्र एक बार प्रासुक, परिमित एवं सादा आहार लेना और उसी समय ही प्रासुक (गर्म) जल पी लेना, नियमानुसार उपवास आदि करते रहना,
१. भगवती आराधना ९४, ९५, दशवकालिक ६।६३. २. उत्तराध्ययन १६॥११. ३. नगिणस्स वा वि मुंडस्स दीहरोमनहसिणो ।
मेहुणा उवसंतस्स किं विभूसाए कारियं । तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा ।
जावज्जीवं वयं घोरं असिणाणमहिट्ठगा । दशवैकालिक ६।६४, ६२. ४. दशवकालिक की जिनदास महत्तर कृत चूणि पृ० २३२. ५. वाहिओ वा अरोगी वा सिणाणं जो उ पत्थए ।
वोक्कतो होइ आयारो जढो हवइ संजमो ॥ दशकालिक ६।६०. ६. उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए ।
गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ॥ उत्तराध्ययन २।९.
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