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मूलगुण : १४९ प्रयोजन ? अशुद्धि का कोई कारण ही नहीं है, क्योंकि-आत्मदर्शी श्रमण तो आत्मा की पवित्रता से स्वयं पवित्र होते हैं ।' स्नान तो आरम्भ-जनित पाप है हो, वह शरीर श्रृंगार का भी एक रूप है। इससे अपने शरीर के प्रति ममत्त्व बढ़ता है तथा आकर्षित करने की भावना भी इससे बनती है। सूत्रकृतांग में कहा है कि जलस्नान से सिद्धि बतलाने वाले मृषा बोलते हैं। अज्ञान को दूर करके देखो कि त्रस और स्थावर सब प्राणी सुखाभिलाषी हैं । अतः इन जीवों की घातक्रिया न करो। जो अचित्त जल से भी स्नान करता है वह 'नाग्न्य' (श्रमणभाव)
___उपर्युक्त सभी कारणों को दृष्टि में रखकर आचार्य व केर ने कहा कि इन्द्रियसंयम और प्राणी-संयम के पालन हेतु स्नानादि अर्थात् जल-स्नान, उबटन, अंजन, लेपन आदि का वर्जनकर, सभी अंगों को जल्ल, मल और स्वेद से विलिप्त रखना अस्नान नामक प्रकृष्ट मूलगुण है ।।
भगवती आराधना में भी कहा है कि श्रमण जलस्नान, अभ्यंग स्नान और उबटन का त्याग तथा नख, केश, दन्त, ओष्ठ, कान, नाक, मुँह, आँख, भौंह तथा हाथ-पैर आदि के संस्कार छोड़े देते हैं।
वस्तुतः अस्नान मूलगुण के विधान में जहाँ शरीर के प्रति अनासक्त भाव और आत्मिक गुणों के जागरण की ओर निरत बने रहने का भाव है वहीं ब्रह्मचर्य महाव्रत के पालन में भी यह सहायक है । क्योंकि अस्नान से तात्पर्य मात्र जलस्नान का निषेध नहीं है अपितु उबटन, मालिश आदि शरीर (शृङ्गार) और उसके संवर्धन के सभी साधनों का निषेध है । भगवती आराधना के ही अनुसार ब्रह्मचारी श्रमण को धूप, गन्ध, माल्य, मुखवास (मुख को सुवासित करने वाले द्रव्यों का मिश्रण), संवाहण (हाथों से शरीर की मालिश), परिमर्दन (पैरों से शरीर दबवाना) तथा पिणिद्धण (कन्धों को उन्नत और दृढ़ बनाने के लिए उन्हें
१. न ब्रह्मचारिणामर्थो विशेषादात्मदर्शिनाम् ।
जलशुद्धयाथवा यावद्दोष सापि मताहतैः ॥ अनगार धर्मामृत ९१९८. २. सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध ७।१७-२१ (अंगसुत्ताणि भाग १ पृ० ३०७-३०८.) ३. हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमलसेदसव्वंगं ।
अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो ।। मूलाचार १।३१. ४. सिण्हाणभंगुन्वट्टणाणि णहकेसमंसुसंठप्पं ।
दंतोट्ठकण्णमुहणासियच्छिभमुहाइंसंठप्पं ।।भगवती आराधना ९३.
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