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१४८ · मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
वाला, जिसकी देहमात्र अवशिष्ट है और दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझ कर नग्न रहने वाला मृतक के समान अपनी शरीरवृत्ति करने वाला तुरीयातीत सन्यासी कहलाता है ।" तैत्तरीयारण्यक में लिखा है - कंथा, लंगोटी, दुपट्टा आदि त्यागकर नग्नरूप के धारक निर्ग्रन्थ परिग्रह रहित होते हैं । इसी प्रकार और भी अनेक ग्रन्थों में आवेलक्य का वर्णन है । अस्नान (अण्हाण) :
जिन श्रमणों की सम्पूर्ण दैनिक जीवनचर्या संयम और साधनामय हो, संयमित तथा संतुलित आहार, विहार और व्यवहार हो, जो सदा आत्मशुद्धि में हीं निरत हों उन्हें शरीर शुद्धि के लिए स्वभावतः स्नानादि की आवश्यकता नहीं रह जाती । क्योंकि विशुद्ध आत्मारूपी नदी में स्नान करना ही परम पवित्रता है । लौकिक गंगा आदि तीर्थों में स्नान मात्र से शुचिता नहीं आती । संयमरूपी जल से भरी सत्यरूपी प्रवाह, शीलरूपी तट और दयारूपी तरंगों को धारण करने वाली आत्मा ही नदी है । मूलाचारवृत्ति में कहा हैश्रमण को स्नान से नहीं अपितु व्रतों से पवित्र होना चाहिए । यदि व्रत रहित प्राणि जलावगाहनादि से पवित्र हो जाते तो मत्स्य, मगर आदि जलजन्तु तथा अन्य सामान्य जन्तु भी पवित्र हो जाते किन्तु कभी भी उससे पवित्रता को प्राप्त नहीं होते । इतना ही नहीं जो राग-द्वेष के मद से उन्मत्त हैं और इन्द्रियों के वशीभूत रहते हैं ये सैकड़ों तीर्थों में स्नान करने पर भी कभी शुद्ध नहीं होते । अतः ब्रह्मचर्य से युक्त और आत्मिक आचार में लीन मुनियों के लिए स्नान की आवश्यकता नहीं । व्रत, नियम, संयम ही पवित्रता के कारण है । इसलिए जो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं, उन्हें जल के द्वारा शुद्धि करने से क्या
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१. तुरीयातीतो गोमुखवृत्या फलाहारी अन्नाहारी चेद् गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बर : कुणपवच्छरीरवृत्तिकः कः - भगवत् गीता टीका १८ १२.
२. कंथाकौपीनोत्तरासंगादीनां त्यागिनो यथाजातरूपधराः निर्ग्रन्था निष्परिग्रहाः - तैत्तरीयारण्यक प्रपाठ १०. अनुवाक्य ६३ वैराग्य प्रकरण.
३. मैत्रेयोपनिषद् ३.१९, दत्तात्रेय सहस्रनाम २, नारद - पारिव्राजकोपनिषद् ३, ४, ५ उपदेशक, तुरीयातीतोपनिषद्, सन्यासोपनिषद्, भिक्षुकोपनिषद्, वैराग्यशतक ५१, ६९. ७७.
४. द्रव्य संग्रह टीका ३५, पृ० १०९.
५. मूलाचारवृत्ति ११३१.
६. अनगार धर्मामृत स्वोपज्ञ टीका ९1९८, पृ० ७०१.
७. मूलाचारवृत्ति १ । ३१.
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