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________________ मूलगुण : १४७ 'मा है । ५. उसके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है । आचेलक्य के प्रायः इसी प्रकार के गुण भगवती आराधना में बताये हैं।' उत्तराध्ययन में कहा है-भन्ते ! उपधि (वस्त्रादि उपकरण) के प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव को क्या प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि उपधि के प्रत्याख्यान से जीव स्वाध्यायध्यान में होने वाली क्षति से बच जाता है। उपधि रहित मुनि आकांक्षा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में मानसिक संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। अर्धमागधी आगमों में जिनकल्पी मुनियों की भी श्रेष्ठतापूर्ण प्रशंसा का उल्लेख सर्वत्र उल्लिखित है, जो कि दिगम्बर मुद्रा धारण करते थे। __वस्तुतः भगवान् महावीर ने सब पापों का मूल परिग्रह माना और अपने जीवन में नग्नता को स्वीकार कर अचेल धर्म का प्रतिपादन किया। इसीलिए उन्होंने वस्त्र की गाँठ नहीं बाँधी और न ऐसा करने का उपदेश ही दिया ताकि इस एक गांठ के पीछे अन्तः और बाह्य की अनेक गाँठे अर्थात् परतन्त्रतायें एवं आकुलतायें बंध जाती हैं। इसीलिए वे अन्तर्बाह्य की सभी गाँठे खोलकर निर्ग्रन्थ बनें और उसी धर्म का प्रतिपादन भी किया। वैदिक परम्परा के अनेक ग्रन्थों में भी आचेलक्य गुण का बहुमान उल्लेखनीय है । इस परम्परा में परमहंस सन्यासियों का स्वरूप तो ऐसा बताया गया है मानो निर्ग्रन्थ साधु को ध्यान में रख कर लिखा गया हो । कहा है-जो नग्न रूप धारक, निर्ग्रन्थ, परिग्रहरहित, ब्रह्ममार्ग में उत्तम रीति से लगा हुआ, शुद्ध हृदय, भोजन के समय प्राण धारण करने के लिए उदर-पूति के योग्य भिक्षा लेता है, लाभ और हानि में समानरूप से रहने वाला, शून्यघर, देवमंदिर, घास के ढेर, वल्मीक और वृक्ष के मूल प्रभृति में रहने वाला, शुक्लध्यान में तत्पर, आत्मस्वरूप में लीन, अशुभ कर्म का नाश करने में उद्यत रहता हुआ सन्यासपूर्वक मरण करनेवाला परमहंस है। तुरीयातीत सन्यासी के स्वरूप में बताया है कि सर्व प्रकार के त्यागी, गोमुख वृत्ति से फल व अन्नाहार करने १. भगवती आराधना ८३,८४. २. उत्तराध्ययन २९॥३५. ३. यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तत्तत् ब्रह्ममार्गे सम्यक्संपन्नः शुद्ध मानसः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण लाभालाभयोः समो भूत्वा शून्यागारदेवगृहतृणकूटवल्मीकवृक्षमूलकुलालशालाग्निहोत्रगृहनदीपुलिनगिरिकुहरकन्दरकोटरनिर्झरस्थण्डिलेषु तेष्वनिकेतवासप्रयत्नो निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठोऽशुभकर्मनिमूलपरः सन्यासेन देहत्यागं करोति सः परमहंसो नामेति-अथर्ववेद-जाबालोपनिषत् सूत्र ६, (संयम प्रकाश पृ० १५५ से उद्धृत). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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