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________________ १४६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन भाव को दूर करने के लिए सदा पवित्र दिग्मण्डल रूप अविनश्वर अम्बर (वस्त्र) अर्थात् दिगम्बर मुद्रा का आश्रय लेते हैं।' मोक्खपाहुड के अनुसार जो अंडज (रेशमी आदि), बोण्डज (कसिज), वल्कज अर्थात् जूट, सन तथा छाल के वस्त्र, चर्मज और रोमज (ऊनी आदि)-ये पांच प्रकार के अथवा इनमें से कोई एक भी वस्त्र धारण करता है, परिग्रह ग्रहण करता है तथा जिसका स्वभाव याचनायुक्त है और अधःकर्म (शास्त्र विरूद्ध निंद्यकर्म) में जिनकी प्रवृत्ति है वे श्रमण मोक्षमार्ग से पतित हैं। जैसा कि पूर्व में भी उल्लिखित किया गया है कि श्वेताम्बर परम्परा के अर्धमागधी आगम साहित्य में भी आचेलक्य (नग्नता) गुण की अनेक प्रसंगों में प्रशंसा और प्रतिष्ठा के उल्लेख मिलते हैं। परीषहों तथा श्रमण के दस स्थितिकल्पों में अचेलकता का विधान है। आचारांग में कहा है-"जो मुनि निर्वस्त्र रहता है वह अवमौदर्य तप का अनुशीलन करता है । साधक को अन्तर्बाह्य प्रन्थियों से मुक्त होकर विचरण करना चाहिए । आचारांग में ही लज्जाकारी अर्थात् अचेल परीषह तथा अलज्जाकारी शीतादि परीषह सहते हुए परिव्रजन करने का उल्लेख करते हुए कहा है कि धर्मक्षेत्र में उन्हें नग्न कहा गया है जो दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते ।" सूत्रकृताङ्ग में भी नग्नता की प्रतिष्ठा श्रमण के लिए निर्दिष्ट है । स्थानांग में पांच स्थानों पर अचेलक को प्रशस्त बताया है। १. अचेलक के प्रतिलेखना अल्प होती है । २. उसका लाघव (उपकरण तथा कषाय को अल्पता) प्रशस्त होता है । ३. उसका रूप (वेष) वैश्वासिकविश्वास के योग्य होता है। ४. उसका तप अनुज्ञात अर्थात् जिनानुमत होता १. पद्मनंदि पंचविंशतिका १.४१. २. जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला । आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥ मोक्खपाहुड ७९. ३. जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति ओमोयरियाए-आचारांग ६।२।४०. ४. गंथेहिं विवित्तेहिं आउकालस्स पारए-वही ११८८. ५. जे हिरी जे य अहिरीमणा । एते भो! णगिणा वुत्ता जे लोगंसि अणागमण धम्मिणो-वही ६।२।४५. ६. जस्सट्ठाए कीरई नग्गभावे मुडभावे-सूत्रकृताङ्ग, सूत्र ७१४ पृ० १८५. पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं जहा-अप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुण्णाते, विउले इंदियणिग्गहे-स्थानांग ५१३, अचेलपदं सूत्र २०१ (ठाणं पृ० ६३०). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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