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मूलगुण : १४५ का अन्वेषण करते हैं । भगवती आराधना के अनुसार यदि श्रमण वस्त्र मात्र का त्याग करने पर भी दूसरे परिग्रहों से युक्त है तो उसे संयत नहीं कहा जा सकता, अतः वस्त्र के साथ-साथ सम्पूर्ण परिग्रह का भी त्याग कर देना अचेलकत्व है । इससे लोभादि कषायों की निवृत्ति एवं त्याग धर्म में प्रवृत्ति तथा लाघव गुण की प्राप्ति होती है । निर्वस्त्र श्रमण उठने बैठने, गमन करने आदि कार्यों में अप्रतिबद्ध होते हैं । जितेन्द्रिय, बल और वीर्य आदि गुण भी उसमें प्रगट होते हैं ।
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भगवती आराधना में कहा है कि श्रमणों के लिए अचेलकत्व (नग्नता) गुण मोक्ष यात्रा के साधनभूत रत्नत्रय और गुणीपने का चिह्न है । इससे श्रावकों को दानादि में प्रवृत्ति भी होती है । जगत्-प्रत्ययता अर्थात् सम्पूर्ण जगत् (प्राणियों) की इस पर श्रद्धा होती है । आत्मस्थिरता गुण उत्पन्न होता है । साथ ही गृहस्थों से भिन्नता दिखती है । परिग्रह का लाघव अप्रतिलेखन, गतभयत्व, सम्मूर्छन जीवों का बचाव और परिकर्म अर्थात् वस्त्र मांगना, सिलाना, घोना, सुखाना आदि कार्यों का त्याग — ये गुण वस्त्र रहित (नग्न) वेष धारण करने में हैं। आगे बताया है कि निर्वस्त्र मुद्रा विश्वास उत्पन्न कराने वाला होता है, विषय भोगों से होने वाले क्षणिक शारीरिक सुखों के प्रति अनादर भाव प्राप्त होता है, सर्वत्र आत्मवशता या स्वाधीनता रहती है तथा शीतादि परीषहों के सहन की शक्ति प्राप्त होती है । " अचेलकत्व से स्पर्शनादि इन्द्रियाँ अपने विषयों में समिति युक्त प्रवृत्ति करती हैं । स्थान, आसन, शयन इत्यादि क्रियाओं में भी समिति युक्त प्रवृत्ति होती है । गुप्ति का पालन होने से शरीर के प्रति ममत्व दूर होता है । यह मुद्रा जिनेन्द्र भगवान् का प्रतिरूप है । वीर्याचार का प्रवर्तन तथा रागादि दोषों को दूर करती है ।
इस प्रकार अचेलकत्व (नग्नता ) में अनेक गुण समाविष्ट हैं । इसीलिए संयम विघात, व्याकुलता, याचना, क्रोधादि दोषों से बचने के लिए श्रमण राग
१. उपधिभर विप्पमुक्का वोसट्टंगा णिरंबरा धीरा ।
निक्किचण परिसुद्धा साधू सिद्धि वि मग्गति ।। मूलाचार ९।३०.
२. भगवती आराधना ११२४.
३. वही, विजयोदया टीका ४२१, पृ० ६१०-६११.
४.
भगवती आराधना ८२, ८३.
५. विस्सासकरं रूवं अणादरो विसयदेहसुक्खेसु ।
सव्वत्य अपवसदा परिसह अधिवासणा चेव ॥। वही, ८४.
६. वही ८६, ८५.
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