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________________ १४४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार संसार विरक्ति के प्रमुख कारणों में तथा स्वाधीनता, निर्दोषता आदि गुणों के कारण इस मूलगुण का श्रमण जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है । वैदिक परम्परा में यजुर्वेद के रुद्राध्याय में "कुलुञ्चानां पतये नमो नमः' कहकर केशलोच करने वालों के स्वामी को बारम्बार नमस्कार किया गया है। इसमें जैन परम्परा के श्रमणों में इस गुण की प्राचीन परम्परा तथा उसके प्रति आदरभाव भी प्रकट होता है । आचेलक्य : चेल शब्द का सामान्य अर्थ 'वस्त्र' है। यहाँ चेल शब्द उपलक्षण मात्र है । किन्तु श्रमणाचार के प्रसंग में चेल शब्द 'सम्पूर्ण परिग्रहों' का द्योतक है । चेल के परिहार (त्याग) से सम्पूर्ण परिग्रह का परिहार हो जाता है। इसी त्याग की दृष्टि से जिसके पास वस्त्राभूषणादि नहीं है वह अचेलक और अचेलक का भाव आचेलक्य है ।२ अचेलकत्व सम्पूर्ण अपरिग्रही होने का चिह्न है । यह उत्सर्ग लिंग है । अतः श्रमण को मन, वचन और काय से शरीर ढकने के लिए वस्त्र के ग्रहण का निषेध है।४ वट्ट केर ने कहा है-वस्त्र, अजिन (मृगचर्म), वल्कल (वृक्ष की छाल या त्वचा) पत्ते, तृणादि से शरीर न ढकना, सभी प्रकार के वस्त्राभूषणों एवं परिग्रहों से सर्वथा रहित होकर निर्ग्रन्थ (नग्न) रहना जगत्पूज्य आचेलक्य मूलगुण है।५ वट्टकेर ने मूलाचार में आचेलक्य (नग्नत्व) के लिए 'जहाजाद' (यथाजात), णिरंबरा (निरम्बरा) आदि शब्दों का भी प्रयोग किया है। वस्तुतः उपधि (वस्त्रादि उपकरणों) के भार से पूर्णत मुक्त व्युत्सृष्टाङ्ग वाले अर्थात् शरीर के अवयवों के प्रति आसक्ति रहित, निरम्बर अर्थात् कपड़ों से रहित, धीर, निर्लोभी, परिशुद्ध अर्थात् मन-वचन-काय से शुद्ध आचरण वाले साधु ही सिद्धि १. चेलशब्देन सर्वोऽपि वस्त्रादिपरिग्रहः उच्यते, चेलपरिहारेण सर्वस्य परिग्रहस्य परिहारः-मूलाचारवृत्ति १०।१७. २. चेलं वस्त्रं, उपलक्षणमात्रमेतत्, तेनसर्वपरिग्रहः श्रामण्यायोग्यः चेलशब्दे नोच्यते, न विद्यते चेलं यस्यासावचेलकः अचेलकस्य भावोऽचेलकत्वं वस्त्रा भरणादि परित्यागः । वही १।३. ३. अचेलकत्त्वं नैःसंग्यचिह्नम्-वही १०।१७. ४. चेलं वस्त्रं तस्य मनोवाक्कायैः संवरणार्थमग्रहणम्-वही ११३०. ५. वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा असंवरणं । णिभूसणं णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पूज्जं ॥मूलाचार १।३०. ६. वही ९।१५, ३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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