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________________ मूलगुण : १४३ केशलोच की विधि : जैनधर्म के अनुसार श्रमण के लिए लोच-मूलगुण का अनिवार्य रूप से पालन करने का विधान प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समय से लेकर अब तक चला आ रहा है। इसमें निर्विकार प्रवृत्ति होने से रत्नत्रय में उद्यमशीलता का बढ़ना स्वाभाविक है । लोच की विधि और स्वरूप के विषय में वट्टकेर ने कहा है कि दिन में प्रतिक्रमण और उपवासपूर्वक दो, तीन, चार मास में क्रमशः उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूप से केशलोच करना चाहिए । यहाँ उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य-भेद से लोच तीन प्रकार का बतलाया है। अर्थात् दो महीने के पूर्ण होने या अपूर्ण रहने पर दिन में प्रतिक्रमण और उपवासपूर्वक केशलोच करना उत्कृष्ट लोच कहलाता है। तीन महीनों के पूर्ण होने या अपूर्ण रहने पर मध्यम और प्रत्येक चार महीनों के पूर्ण होने या अपूर्ण रहने पर केशलोच करना जघन्य लोच है । किन्तु चार मास से अधिक नहीं होना चाहिए। प्रत्येक लोच उपवास और मौन पूर्वक दिन में ही करने का विधान है। पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण के दिन अथवा बिना प्रतिक्रमण के भी लोच किया जा सकता है। केशलोच करने के पश्चात् भी प्रतिक्रमण करना चाहिए। सिर, मूछ तथा दाढ़ी के बालों का ही लोच करने का ही विधान है,५ गुह्याङ्गों के बालों का नहीं। ब्रह्मचर्य की रक्षार्थ भी ऐसा आवश्यक है । मस्तक दाढ़ी और मूंछ के बालों को हाथ की अंगुलियों से पकड़कर सिर के दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर बायीं ओर प्रदक्षिणा-आवर्त रूप से लोच करना चाहिए। सिर में भस्म लगाकर भी लोच किया जा सकता है। १. वियतियचउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्झिमजहण्णो । सपडिक्कमणे दिवसे उववासेणेव कायव्वो ॥मूलाचार १।२९. २. सप्रतिक्रमणे दिवसे पाक्षिक चातुर्मासिकादो उपवासेनैव द्वयोर्मासयोर्यत् केश श्मश्रूत्पाटनं स उत्कृष्टो लोचः । मूलाचार वृत्ति १।२९. ३. मूलाचारवृत्ति ११२९. ४. प्रतिक्रमणरहितेऽपि दिवसे लोचस्यं सम्भवः।""लोचं कृत्वा प्रतिक्रमणं कर्तव्य मिति-वही ११२९. ५. वही ११३,२९, १०।१७. तथा विजदयोदया टीका ८९. ६. प्रच्छाद्यदेशलोमान्वितः-विजयोदया टीका. ९५. ७. प्रदक्षिणावर्तः केशश्मश्रुविषयः हस्तांगुलीभिरेव संपाद्यः द्वित्रिचतुर्मासगोचरः। -विजयोदयाटीका गाथा ८९, पृष्ठ २२४. ८. कण वि अप्पउ वंचिउ सिरु लुचिवि छारेण-परमात्म प्रकाश २।९०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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