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१४२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन हो तो नाई या उस्तरे के द्वारा भी तो यह कराया जा सकता है । इस सम्बन्ध में मूलाचारवृत्तिकार वसुनन्दि' ने निम्नलिखित छह हेतु प्रस्तुत किये हैं१. बालों में सम्मूर्छनादि जीव उत्पन्न हो जाते हैं, अतः ऐसी स्थिति ही न आने पावे । २. पूर्ण अपरिग्रही होने से बाल बनाने के उपकरण रखना या अन्य किसी से उनकी याचना करना मुनिधर्म के विरुद्ध है । ३. स्ववीर्य अर्थात् महाधीरता और वीरता जैसी आत्मीय शक्ति प्रकट करने, ४. सर्वोत्कृष्ट तप (कायक्लेश) का आचरण करने, ५. राग-द्वेषादि का निराकरण करने, तथा ६. श्रामण्य के चिह्न और निर्ममत्व और चारित्र धर्म में दृढ़ता आदि गुणों का ज्ञापन करने के लिए मुनि को केशलोच करना अनिवार्य है। इस तरह हिंसा तथा आकुलता रूप संक्लेश, परिणामों से बचने के लिए नाई या उस्तरे आदि आश्रय के बिना हाथों से ही सिर तथा दाढ़ी मूछों के बालों को निकाल देना दैन्यवृत्ति, याचना, परिग्रह तथा पराभव (अपमान) आदि दोषों के परित्याग का प्रतीक है। इसीलिए श्रमण के मूलगुणों में इसे अन्तर्भूत भी किया गया। ___श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ कल्पसूत्रचूणि में कहा है केश बढ़ने से जीवों की हिंसा होती है क्योंकि केश भीगने से जू उत्पन्न होते हैं । सिर खुजलाने पर उनकी हिंसा और सिर में नखक्षत हो जाता है। क्षुरे (उस्तरे) या कैंची से बालों को काटने से आज्ञाभंग दोष के साथ-साथ संयम और चारित्र की विराधना होती है । नाई अपने उस्तरे और कैंची को सचित्त जल से साफ करता है अतः पश्चात्कर्मदोष होता है । जैनशासन की अवहेलना भी होती है। इन सब दृष्टियों से श्रमणों को हाथों से केशलंचन करने का विधान किया गया है। दशवकालिक की हारिभद्रीयवृत्ति में लोच को कायक्लेश नामक तप माना है। इसमें कायक्लेश के वीगसन, उकड़ आसन और लोच-ये मुख्य भेद बताये हैं । यहाँ कहा गया है कि लोच करने से निर्लेपता, पश्चात्-कर्मवर्जन, पुरःकर्म वर्जन और कष्टसहिष्णुता-ये चार गुण प्राप्त होते हैं।"
१. लोचः बालोत्पाटनं हस्तेन मस्तकके शश्मश्रूणामपनयनं जीवसम्मूर्छनादि परि
हारार्थ रागादिनिराकरणार्थ स्ववीर्यप्रकटनार्थं सर्वोत्कृष्टतपश्चरणार्थं लिंगादि
गुणज्ञापनार्थं चेति-मूलाचारवृत्ति ११२९. २. लुच धातुरपनयने वर्तते तच्चापनयनं क्षुरादिनापि सम्भवति । तत्किमर्थ
मुत्पाटनं मस्तके केशानां श्मश्रूणां चेति चेन्नैष दोषः, दैन्यवृत्तियाचनपरिग्रह
परिभवादिदोषपरित्यागादिति-मूलाचार वृत्ति १।२९. ३. कल्पसूत्रचूणि २८४, एवं कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र १९०-१९१. ४. दशवैकालिक (१३।३३.) हारिभद्रीयवृत्ति पत्र सं० २८-२९.
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