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लोच :
लोच से तात्पर्य अपने या दूसरे के हाथों से मस्तक और दाढ़ी-मूंछ के बालों का लुञ्चनपूर्वक अलग करना है । प्रचलित अर्थ में इसे केशलोंच या केशलुञ्चन कहा जाता है । लोच शब्द लंच धातु से बनकर अपनयन करने, निकालने, दूर करने तथा बाल उखाड़ने अर्थ में प्रयुक्त होता है । २
मूलगुण : १४१
जहाँ सांसारिक प्राणी के लिए केश आदि सौन्दर्य के प्रतीक माने जाते हैं। वहीं मुमुक्षु जीव इन्हें बाधक मानता है । चूँकि एक स्थिति तक केश स्वाभाविक रूप में बढ़ते हैं और यदि उनकी यथोचित सार - सम्हाल (संस्कार) न की जाय तो अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं । भगवती आराधना तथा उसकी विजयोदया टीका में कहा भी है कि प्रतिकार न करने वाले अर्थात् तेल लगाना, अभ्यंग स्नान करना, सुगन्धित पदार्थों से केशों का संस्कार न करना तथा जल से धोना आदि क्रियायें न करने वाले के केशों में जूं, लीख आदि सम्मूर्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इससे मुनि के शयन के समय, धूप में जाने, सिर से किसी के टकराने आदि के कारण उन जीवों को बाधा पहुँच सकती है । उस बाधा तथा उन जीवों को दूर करना अशक्य है । अन्यत्र से भी अन्यान्य कीटादि आकर बालों में जम जाते हैं । उन्हें निकालना तो कठिन है ही, निरन्तर आकुलता भी बनी रहती है । जू आदि से पीड़ित मुनि के मन में संक्लेश परिणाम उत्पन्न होते हैं । तथा उनके काटने पर सिर को खुजलाने से जू आदि भी पीड़ित होते हैं— अतः इन सबसे विरत रहने के लिए मुनि को केशलोच का विधान किया । ऐसा न उपर्युक्त स्थितियों में उसे हिंसा का प्रसंग आता है जबकि लोच से मुण्डत्व, मुण्ड से निर्विकारता तथा निर्विकारता से रत्नत्रय में उद्योग की प्रवृत्ति बढ़ती है । इससे ही आत्मदमन, सुख के प्रति अनासक्त, स्वाधीनता, निर्दोषता और निर्ममत्व आदि भावों में प्रवृत्ति तथा धर्म ( चारित्र) के प्रति श्रद्धा प्रकट होती है । कायक्लेश नामक यह उग्र तप है जिसके सहन करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है । ३
करने से
प्रश्न उठता है कि मुनि को हाथों से ही उखाड़ कर केशलोच करने की क्या आवश्यकता है ? या तो केश बढ़ाता ही जाय अथवा ऐसा करना आवश्यक
१. (क) लोचः हस्ताभ्यां मस्तक कूर्चगतबालोत्पाट : -- मूलाचारवृत्ति १1३. (ख) लोचः स्वहस्तपरहस्तैर्मस्तक कूर्च गत के शापनयनं — वही १०।१७. २. लंच धातुरपनयने वर्तते - मूलाचारवृत्ति १।२९ तथा पाइअसद्दमहण्णवो पृष्ठ ७२६.
३. भगवती आराधना विजयोदया टीका सहित गाथा ८८ - ९२.
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