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________________ १४० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन से गिरने नहीं देती । अतः गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने देने के लिए इनका आचरण अत्यन्त उपयोगी है। जिसने मन-वचन-काय से इन्द्रियों को वश में किया है उनका परमार्थतः इन्हीं आवश्यकों में आवासन (अवस्थान) होता है किन्तु जिसने त्रिविध रूप से इन्द्रियों को वश में नहीं किया उन्हें ये ही आवश्यक कर्मागम के कारण हैं । जो आत्मा इनका नित्य सदाचरण करता है, वही विशुद्धता (मोक्ष) प्राप्त करता है । अतः मन, वचन और काय से सर्वथा शुद्ध योग्य द्रव्य, क्षेत्र और काल में अव्याक्षिप्त (व्याकुलता रहित) और मौनपूर्वक इनका पालन करना चाहिए। क्योंकि आत्मिक गुणों को प्रकट करने या आत्मिक विकास के लिए अवश्य करणीय क्रिया को 'आवश्यक' कहा गया है । यह आत्मा को भावशुद्धि से गिरने नहीं देता। इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों में से पांच महाव्रत, पांच समिति, पंच-इन्द्रियनिरोध तथा उपर्युक्त छह आवश्यक-इन इक्कीस मूलगुणों के विवेचन के बाद शेष सात मूलगुणों का क्रमशः विवेचन प्रस्तुत है शेष सात मूलगुण : मूलाचार के अनुसार अचेलकत्व, लोच, व्युत्सृष्टशरीरता (स्नानादि संस्कारों का त्याग) तथा प्रतिलेखन (पिच्छि) ये चारित्रधारण करने वाले मुनि के चार प्रमुख बाह्य चिह्न (लिङ्ग) हैं ।" इन चार चिह्नों में अचेलकत्व पूर्ण अपरिग्रहत्व का, लोच सद्भावना का, व्युत्सृष्टदेहत्व वीतरागता का तथा प्रतिलेखन अर्थात् मयूरपिच्छि का ग्रहण दया प्रतिपालन का प्रतीक है।६ इन चार चिह्नों में प्रतिलेखन को छोड़ कर प्रारम्भ के तीन चिह्नों को मूलगुण भी कहा है। इनके साथ ही क्षितिशयन, अदंतघर्षण, स्थितभोजन तथा एकभक्त-इस प्रकार इन शेष सात मूलगुणों का क्रमशः विवेचन इस प्रकार है : १. ज्ञानसार, क्रियाष्टक ५-७. २. मूलाचार ७।१८८. ३. जो उवज़ुअदि णिच्चं सो सिद्धि जादि विसुद्धप्पा-मूलाचार ७।१९३. ४. वही ७।१८९ ५. अच्चेलक्कं लोचो वोसट्ट सरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिंगकप्पो चदुन्विधो होदि णायव्वो । मूलाचार १०।१७. ६. अचेलकत्त्वं नैःसंग्यचिह्न, सद्भावनायाश्चिह्न लोचः, व्युत्सृष्टदेहत्वमपरागतायाश्चिह्न, दयाप्रतिपालनस्य लिंमं मयूरपिच्छिकाग्रहणमिति । -मूलाचारवृत्ति १०११७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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