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मूलगुण : १३९ गूहन ) दोष - भील की वधू के सदृश जंघाओं से जंघा भाग सटाकर अपने गुह्य प्रदेश को हाथ से ढककर कायोत्सर्ग करना । ७. निगल दोष – पैरों में बेड़ी बाँधे हुए मनुष्य के सदृश पैरों में अधिक अन्तर रखकर या टेढ़े चरण रखकर खड़े होना । ८. लम्बोत्तर दोष – नाभि से ऊपर का भाग अधिक झुकाना या ऊँचा करना । ९. स्तनदृष्टि दोष – अपने स्तन की ओर दृष्टि रखना । १०. वायस दोष - कौवे की तरह इतस्ततः चंचल नेत्रों से दृष्टि फेंकना । ११. खलीन दोषखलीन - लगाम से पीड़ित अश्व की तरह मुख को हिलाना या दाँतों को चबाना | १३. युग ( युगकन्धर) दोष - जुआ से पीड़ित बैल की तरह कन्धा झुकाना । १३. कपित्थ दोष - हाथ में कैंथ फल लिए हुए व्यक्ति की तरह मुट्ठी बांधना । १४. शिरः प्रकंपन दोष - सिर चलाते हुए कायोत्सर्ग करना । १५. मूक दोष - मूक मनुष्य की तरह मुख, नासिका आदि से संकेत करना । १६. अंगुलि दोष - अंगुलि चलाना या उनकी गणना करना । १७. भ्रूविकार दोष या तिरछी करना । १८. वारुणीपायी दोष — मद्यपी की तरह हुए खड़े होना । १९. दिगवलोकन दोष – सभी दिशाओं में ग्रीवोन्नमन प्रणमन दोष — ग्रीवा अधिक नीचे या ऊपर करना । २१. निष्ठीवन दोष – कायोत्सर्ग करते समय थूकना, खकारना आदि । २२. अंगामर्श दोष – अपने अंगों को स्पर्श करना। इसप्रकार उपर्युक्त २२ दोष तथा दस दिशाओं के दस दोष यथा - १. पूर्वदिशावलोकन दोष, २. आग्नेय दिशा०, ३. दक्षिणदिशा०, ४. नैऋत्य दिशा०, ५. पश्चिम दिशा०, ६. वायव्य दिशा०, ७. उत्तर दिशा०, ८. ईशान दिशा०, ९. उर्ध्वदिशा ० और १०. अधोदिशावलोकन दोष ।
भौंहों को ऊपर, नीचे
यहाँ-वहाँ झूमते
देखना । २०.
कायोत्सर्ग के ये बत्तीस दोष हैं । इनसे रहित कायोत्सर्ग करने को ही शुद्ध कायोत्सर्ग तप कहा जाता है ।
उपर्युक्त छह आवश्यक श्रमण जीवन के दैनिक कार्यक्रमों के आवश्यक अंग हैं । आवश्यकों का यह क्रम सहज है तथा कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर आधारित है । इनके निर्दोष पालन से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । ये ज्ञान और क्रियामय हैं अतः इनका आचरण मोक्ष सिद्धिदायक है । जो इनका पालन नियम से करता है वह निश्चय ही सिद्ध होता हैं, पर जो सभी आवश्यकों का निःशेष पालन न करके यथाशक्ति पालन करते हैं उसे भी आवासक अर्थात् स्वर्गादिक आवास की प्राप्ति होती है ।" वस्तुतः आवश्यक क्रिया आत्मा को प्राप्त भावशुद्धि
१. सव्वावासणिजुत्तोणियमा सिद्धोत्ति होइ णायव्वो ।
अह णिस्सेसं कुर्णादि ण णियमा आवासया होंति ॥
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— मूलाचार वृत्तिसहित ७।१८७.
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