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________________ १३८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय कर्म) के अतिचार विनष्ट हो जाते हैं। उत्तराध्ययन में कायोत्सर्ग को 'सर्व दुःख विमोचक' कहा है -२ चेष्टा और अभिभव-कायोत्सर्ग के पूर्वोक्त इन दो भेदों में प्रथम चेष्टा कायोत्सर्ग के द्वारा श्रमण शौच, भिक्षा आदि के निमित्त जाने और वापस आने तथा निद्रात्याग आदि प्रवृत्तियों के पश्चात् अनजाने में हुए अतिचारों को दूर कर विशुद्धि को प्राप्त करता है। तथा अभिभव कायोत्सर्ग के द्वारा जहाँ विशेष आत्मविशुद्धि को प्राप्त किया जा सकता है वहाँ श्रमण जीवन में निरन्तर होने वाले कष्टों, उपसर्गों, आकस्मिक या सहजप्राप्त विघ्न बाधाओं को समताभाव पूर्वक सहन करने की अपूर्व क्षमता प्राप्त होती है। जैन साहित्य विशेषकर पुराण और कथा साहित्य में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं जब किसी आचार्य या श्रमण को इस प्रकार की प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ा उस समय उन्होंने कायोत्सर्ग धारण कर ध्यान में खड़े हो गये, तब उससे जो तेज प्रकट हुआ उसके कारण वह बाधा अपने आप दूर हो गई । जैनधर्म में प्रचलित रक्षाबन्धन कथा में अकम्पनाचार्य मुनि के उदाहरण से इस कथन की विशेष पुष्टि भी होती है जबकि हस्तिनापुर में आहार से लौटते हुए अकम्पनाचार्य मुनि पर बलि आदि चार मन्त्रियों ने तलवार से उनके ऊपर हमला के लिए घेर लिया । तब वे मुनि कायोत्सर्ग में लीन हो गये । और जैसे ही उन मन्त्रियों ने वार करने के लिए तलवारें ऊपर उठायीं वैसे ही उन सभी के हाथ कोलित हो गये । इसी प्रकार अन्यान्य उदाहरण प्राप्त होते हैं। ___इस प्रकार कायोत्सर्ग से अनेक लाभ हैं जिन्हें इस आवश्यक के अन्तर्गत यहाँ विवेचित विभिन्न विषयों में देखा जा सकता है। कायोत्सर्ग में निषिद्ध बत्तीस दोष : १. घोटक दोष-कायोत्सर्ग करते समय घोड़े के समान एक पैर उठाकर अथवा झुककर खड़े होना । २. लतादोष-वायु से कम्पित लता के सदृश कायोत्सर्ग के समय चंचल रहना या हिलना । ३. स्तम्भ दोष-स्तम्भ (खम्भे) आदि का आश्रय लेकर या स्तम्भ के सदृश शून्य हृदय होना । ४. कुड्यदोष-दीवार आदि के आश्रित खड़े होकर कायोत्सर्ग करना । ५. मालादोष-मस्तक के ऊपर माला या रस्सी आदि का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना। ६. शबरवधू (गुह्य १. वही ७।१५५. २. उत्तराध्ययन २६।४७. ३. मूलाचार ७१७१-१७३, भगवती आराधना वि० टी० ११६, पृ० २७९, अनगार धर्मामृत ८।११२-१२१, चारित्रसार १५६०२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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