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मूलगुण : १५७
का आधारभूत कहा है । समस्त उत्तरगुणों की प्राप्ति के लिए ये गुण मूल रूप है। जिस प्रकार मूलरहित वृक्षों पर कभी फल नहीं लग सकते उसी प्रकार मूलगुणों से रहित समस्त उत्तरगुण भी कभी फल नहीं दे सकते। फिर भी उत्तरगुण प्राप्त करने के लिए जो मूलगुणों का त्याग कर देते हैं वे अपने हाथ की अंगुलियों की रक्षा के लिए अपना मस्तक काट देते हैं। अतः इन समस्त मूलगुणों का पूर्ण प्रयत्न के साथ सर्वत्र एवं सर्वदा पालन करना अभीष्ट है।' जब इन मूलगणों के पालन में शरीर अशक्त हो जाए अर्थात् जब जंघाबल (पैरों से चलने-फिरने और खड़े होने आदि की शक्ति ) क्षीण हो जाए, अजुलिपुट में आये हुए आहार को स्वयं मुख तक न ले जा सके, आँखें कमजोर हो जाएँ, उनसे सूक्ष्म वस्तु दिखाई न दे और न भोजन का शोधन किया जा सके तथा श्रोतेन्द्रिय की शक्ति क्षीण हो जाए तब श्रमण को भक्तप्रत्याख्यान ( अनुक्रम से आहार त्याग करना तथा कषाय को कृश करते हुए समाधिमरण को प्राप्त होना ) धारण कर लेना चाहिए किन्तु ग्रहण किये हुए व्रतों में शिथिलता कदापि न लाना चाहिए ।
१. मूलाचार प्रदीप ४।३१२-३१९. २. चक्खं व दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्बलं जस्स ।
जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थो विहरदुं वा ॥ भगवती आराधना ७३.
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