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मूलगुण : १३५ संकल्प सभी के लिए महार्थ अर्थात् कर्मक्षय के हेतुभूत, प्रशस्त, विश्वस्त, सम्यक् ध्यानरूप तथा जिनशासन सम्मत हैं।'
इनके विपरीत कुछ त्याज्य अशुभ संकल्प इस प्रकार हैं-परिवार, ऋद्धि, सत्कार, पूजन, अशन, पान, लयण (उत्कीर्ण पर्वतीय गुफा आदि) शयन, आसन, भक्तपान, कामेच्छा, अर्थ-धनादि द्रव्य-इनके लिए कायोत्सर्ग करना तथा आज्ञा, निर्देश, प्रमाण (सभी मुझे प्रमाणस्वरूप समझें), कीर्तिवर्णन, प्रभावना, गुणों का प्रकाशन-इत्यादि प्रकार के सांसारिक वैभव प्राप्ति के भाव अप्रशस्त मनःसंकल्प हैं। कायोत्सर्ग में ये विश्वास के सर्वथा अयोग्य होने से इनका चिन्तन त्याज्य है। कायोत्सर्ग का कालमान :
रात, दिन, पक्ष, चातुर्मास, संवत्सर (वर्ष)-इन कालों में होने वाले अतिचारों की निवृत्ति की दृष्टि से कायोत्सर्ग के बहुत भेद हैं ।३ कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल-प्रमाण एक वर्ष और जघन्य प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । इन दोनों के बीच में देवसिक, रात्रिक कायोत्सर्ग के अनेक विकल्प हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में शक्ति की अपेक्षा अनेक-विध होते हैं ।४ वे इस तरह हैं-दैवसिक प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का कालप्रमाण १०८ उच्छ्वास (३६ बार णमोकार मंत्र के जप बरावर) है। विजयोदया टोका में इसे १०० उच्छवास प्रमाण माना है ।" रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ उच्छ्वास । विजयोदया टीका में रात्रिक के ५० उच्छ्वास माने हैं ।६ पाक्षिक में ३०० उच्छ्वास, चातुर्मासिक में ४०० उच्छ्वास, सांवत्सरिक में १०८ उच्छ्वास, वीरभक्ति, सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति और चतुर्विशति-तीर्थंकर-भक्ति में अप्रमत्तभाव से उच्छ्वास-प्रमाण जप करना चाहिए। इस प्रकार देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक-इन पाँच स्थानों पर उपर्युक्त
१. मूलाचार ७।१८१-१८३. २. वही ७।१८४-१८५. ३. अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति । रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टय
संवत्सरादि कालगोचरातिचार भेदापेक्षया-भगवती आराधना विजयोदया
टीका, गाथा ११६ पृ० २७८. ४. संवच्छरमुक्कस्सं भिण्णमुहुत्तं जहण्णयं होदि ।
सेसा काओसग्गा होति अणेगेसु ठाणेसु ।। मूलाचार ७।१५९. ५. भगवती आराधना विजयोदया टीका गाथा ११६, १० २७८. ६. वही.
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