SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन सर्वप्रथम एकान्त एवं अबाधित स्थान में पूर्व तथा उत्तर दिशा अथवा जिनप्रतिमा की ओर मुख करके आलोचनार्थ कायोत्सर्ग करने का विधान है।' फिर बाहुयुगल नीचे करके दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद एवं निश्चल खड़े होकर मन से शरीर के प्रति 'ममेदं' बुद्धि की निवृत्ति कर लेना चाहिए । कायोत्सर्ग में स्थित होकर श्रमण को दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करना चाहिए। साथ ही ईर्यापथ के अतिचारों का क्षय एवं अन्य नियमों को पूर्ण करके धर्म और शुक्लध्यान का चिन्तन करना चाहिए । कायोत्सर्ग में स्थित होने पर देव, मनुष्य, तिथंच और अचेतन के द्वारा किये गये किसी भी प्रकार के उपसर्ग को सहन करना चाहिए। तभी तो धीर श्रमण भक्तपान, ग्रामान्तरगमन, चातुर्मासिक, वार्षिक और औत्त मार्थिक प्रतिक्रमण आदि विषयों के वेत्ता, माया-प्रपंच रहित, अनेक विशेषताओंयुक्त, स्वशक्ति एवं आयु के अनुसार दुःखक्षय के लिए कायोत्सर्ग करते है । बल और वीर्य के आश्रय से क्षेत्रबल, कायबल तथा शरीर संहनन की अपेक्षा से निर्दोष कायोत्सर्ग करने का विधान भी है। ___ कायोत्सर्ग में चिन्तनीय शुभ मनःसंकल्प इस प्रकार हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, संयम, व्युत्सर्ग, प्रत्याख्यान ग्रहण, तथा करण (तेरह क्रियायें--पंचनमस्कार, छह आवश्यक एवं आसिका और निषीधिका), प्रणिधान, समिति पालन के भाव, विद्या, आचरण, महाव्रत, समाधि, गुणों में आदरभाव, ब्रह्मचर्य पालन, षट्काय के जीवों की रक्षा के भाव, इन्द्रियनिग्रह, क्षमा, आर्जव, मार्दव, विनय, तत्वश्रद्धान और मुक्ति के परिणाम-इन सभी विषयों में शुभ मनःसंकल्प अवश्य ही कायोत्सर्ग के समय धारण करना चाहिए । कायोत्सर्ग में ये शुभ मनः १. भगवती आराधना गाथा ५५० २. मूलाचार ७।१५३, भगवती आराधना वि० टी० ५०९. ३. भगवती आराधना विजयोदया टीका ५०९, पृ० ७२९. ४. मूलाचार ७।१६८. ५. मूलाचार ७११६७. ६. वही ७।१२८, आवश्यक नियुक्ति दीपिका गाथा १५४४. ७. भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमासि य वरिस चरिमेसु । णाऊण ठंति धीरा धणिदं दुक्खक्खयट्ठाए ॥ मूलाचार ७११६६, १७४. ८. वही ७।१७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy