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________________ मूलगुण : १३३ कारणों का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च-इन चेतन प्राणियों द्वारा किये जाने वाले तथा विद्युत्पात् आदि अचेतन कारणों से उत्पन्न सभी प्रकार के उपसर्गों के अभ्यास हेतु अर्थात् इन उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए।' इसीलिए श्रमण भी मोक्षमार्ग में स्थिर रहकर ईर्यापथ के अतिचारों का त्यागकर व्युत्सृष्ट त्यक्तदेह अर्थात् शरीर में मोह के त्यागपूर्वक दुःखक्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। यहाँ व्युत्सृष्टत्यक्तदेह से तात्पर्य जिसने विविध या विशिष्ट प्रकार से देह (शरीर) उत्सर्ग कि या हो । कायोत्सर्ग की विधि सिद्ध करने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं. १. स्थान २. मौन और ३. ध्यान । स्थान से तात्पर्य कायिक हलन-चलन से रहित होकर एक ही स्थान पर स्थिर रहना । ऐसा कायोत्सर्ग स्थित (खड़े) होकर", उपविष्ट अर्थात् बैठकर तथा शयनपूर्वक या लेटकर भी किया जा सकता है । हेमचंद्राचार्य ने भी इन तीनों अवस्थाओं का वर्णन किया है। समाधिमरण के समय यावज्जीवन के लिये किया जाने वाला कायोत्सर्ग लेटकर भी किया जा सकता है । कायोत्सर्ग में मौन भी एक प्रमुख कार्य है। इसके अभाव में बाह्य प्रवृत्तियों से पूर्णतः विरत होना असम्भव है । अतः मौन के द्वारा वाक् प्रवृत्ति का स्थिरीकरण होता है । तथा कायोत्सर्ग में चित्तवृत्ति को समेटकर एक ही विषय पर मन केन्द्रित करने के लिए ध्यान भी परमावश्यक है । वस्तुतः कायोत्सर्ग एक आध्यात्मिक उत्कर्ष की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । विधि को दृष्टि से कायोत्सर्ग के पूर्वोक्त चार भेदों में श्रमण के लिए प्रथम उत्थित-उत्यित और तृतीय उपविष्ट-उत्थित ये दो कायोत्सर्ग ही उपादेय हैं । १. जे केई उवसग्गा देवमाणुसतिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काओसग्गे ठिदो संतो ॥ मूलाचार ७।१५८. २. काओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि । वोसट्टचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्टाए ।। वही ७।१६५ ३. व्युत्सृष्टो-विविधैरुपायविशेषेण वा परीषहोपसर्गसहिष्णुतालक्षणेनोत्सृष्टः त्यक्तः कायः शरीरमनेनेति व्युत्सृ ष्टकायः-उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ३७१. ४. मूलाचार ६३१५९. ५. वही ७।१५८. ६. स च कायोत्सर्ग उच्छ्रि तनिषण्णशयितभेदेन त्रिधा--योगशास्त्र तृतीय प्रकाश पृष्ठ २५०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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