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मूलगुण : १३१ १. उत्थित-उत्थित-जिस कायोत्सर्ग में खड़े होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तन किया जाता है वह उत्थित-उत्थित कायोसर्ग है। इसमें श्रमण शरीर (द्रव्य) तथा परिणामों (भावों) इन दोनों में उत्थित होता है, यहाँ द्रव्य और भाव दोनों के ही उत्थान से युक्त होने के कारण उत्थित-उत्थित शब्द से उत्थान का प्रकर्ष कहा है। स्थाणू (खम्भे) की तरह शरीर का उन्नत और निश्चल रखना द्रव्योत्थान है । तथा ज्ञानरूप भाव का ध्यान करने योग्य एक ही वस्तु में स्थिर रहना भावोत्थान है।
२. उत्थित-निविष्ट-इसमें शरीर से स्थित (खड़े) होकर भी आर्त-रौद्रध्यान का चिन्तन ही रहता है । अर्थात् श्रमण शरीर रूप द्रव्य से स्थित रहने पर भी मन में विविध अशुभ विकल्प रूप परिणामों से उलझा रहता है । अतः शरीर से खड़े होकर भी शुभ परिणामों के अभाव के कारण (मन-आत्मा से) निविष्टबैठे हुए रहते हैं । अतः एक ही काल और क्षेत्र में उत्थित और निविष्ट-इन दोनों आसनों में परस्पर विरोध नहीं है क्योंकि दोनों के निमित्त भिन्न हैं ।
३. उपविष्ट-उत्थित-उपविष्ट अर्थात् बैठकर भी धर्मध्यान और शुक्लध्यान का ही चिन्तन करना उपविष्ट-उत्थित कायोत्सर्ग है। शरीर के वृद्ध एवं अशक्त हो जाने पर श्रमण खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करने में असमर्थ होता है, किन्तु मन में शुभध्यान-चिन्तन के तीव्र भाव रहते हैं । अतः मन में उन्नत परिणामों से युक्त होने के कारण वह उत्थित होता है किन्तु अशक्ति के कारण उपविष्ट अर्थात् तन से बैठा रहता है।
४. उपविष्ट-निविष्ट-जो बैठकर भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान का ही चिन्तन करता है उसके उपविष्ट-निविष्ट कायोत्सर्ग होता है। ये तन और मन दोनों से उपविष्ट (बैठे हुए) अर्थात् ये आलस्य और कर्तव्य शून्य होते हैं । क्योंकि न तो ये शरीर से उत्थित होते हैं और न ही इनके शुभपरिणाम रहते हैं। __ आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रवाहु ने उद्देश्य की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो भेद बताये है"-चेष्टा कायोत्सर्ग, और अभिभव कायोत्सर्ग । विभिन्न प्रवत्तियां करते समय हुए दोषों या अतिचारों की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला
१. मूलाचार ७१७७.
२. वही ७.१७८. ३. मूलाचार ७।१७९. । ४. वही ७।१८०. ५. सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायव्यो ।
भिक्खायरियाइ. पढमो उवसग्गभिजुजणे विमो॥ आवश्यक नियुक्ति १४५२.
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