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________________ १३० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन तीक्ष्ण, कठोर आदि रूप पापयुक्त नामकरण में हुए दोषों के परिहारार्थ जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह नाम कायोत्सर्ग है । २. स्थापना-कायोत्सर्ग परिणत प्रतिमा । ३. द्रव्य-सावद्य द्रव्य सेवन से उत्पन्न दोष के नाशार्थ कायोत्सर्ग करना, अथवा कायोत्सर्ग प्राभृतशास्त्र को जानने वाला जो उस में उपयुक्त न हो वह पुरुष और उसके शरीर को, भावीजीव, उसके तद्व्यतिरिक्तकर्म और नोकर्म-इनको द्रव्यकायोत्सर्ग कहते हैं। ४. क्षेत्र-पापयुक्त क्षेत्र से आने पर दोषों के नाशार्थ किया जानेवाला अथवा कायोत्सर्ग में युक्त व्यक्ति जिस क्षेत्र में बैठा है वह क्षेत्र कायोत्सर्ग । ५. काल-सावद्यकाल के दोष परिहार के लिए किया जानेवाला कायोत्सर्ग, अथवा कायोत्सर्ग में युक्त पुरुष जिस काल में है वह काल कायोत्सर्ग है । ६. भाव-मिथ्यात्व आदि अतिचारों के परिहारार्थ किया जाने वाला कायोत्सर्ग । अथवा कयोत्सर्ग प्राभृतशास्त्र के ज्ञाता और उपयोग युक्त आत्मा तथा आत्मप्रदेश भाव कायोत्सर्ग है । विजयोदया टीकाकार ने योग के संबंध से मन, वचन और काय की दृष्टि से कायोत्सर्ग के तीन भेद बताये हैं। इनमें १. "ममेदं" यह शरीर मेरा है इस भाव को निवृत्ति मनःकायोत्सर्ग है । २. मैं शरीर का त्याग करता हूँ-इस प्रकार के वचनों का उच्चारण करना वचनकृत कायोत्सर्ग है। ३. प्रलम्बभुज (बाहु नीचे लटकाकर) होकर, दोनों पैरों में चार अंगुलमात्र का अन्तर कर समपाद निश्चल खड़े होना कायकृत कायोत्सर्ग है।' __ आवश्यकणिकार ने कायोत्सर्ग के दो मुख्य भेद बताये हैं-द्रव्य और भाव । इनमें प्रथम द्रव्यकायोत्सर्ग का अर्थ का काय चेष्टा का निरोध अर्थात शरीर की चंचलता एवं ममता का त्याग एवं जिनमुद्रा में निश्चल खड़े होना है । द्वितीय भावकायोत्सर्ग से तात्पर्य है धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में रमण करना । इन द्रव्य और भावभेद को समझाने के लिए मूलाचारकार ने कायोत्सर्ग के चार भेद किये हैं । १. भगवती आराधना विजयोदया टीका-५०९. पृष्ठ ७२८. २. सो पुण काउस्सग्गो दवतो भावतोय भवति, दव्वतो कायचेट्टानिरोहो भावतो काउस्सग्गो झाणं-आवश्यक चूणि उत्तरार्द्ध १५४८. ३. उट्टिदउट्ठिद उट्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ उट्टि दो चेव । उविट्ठणिविट्ठो वि य काओसग्गो चट्ठाणो ॥ -मूलाचार ७।१७६, भगवती आराधना वि० टी० ११६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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