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________________ मूलगुण : १२९ कायोत्सर्ग (विसग्ग या काउसग्ग) कहलाता है ।' काय + उत्सर्ग-इन दो शब्दों के योग से कायोत्सर्ग शब्द बना है जिसका अर्थ है काय का त्याग अर्थात् परिमिति काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग ।२ काय आदि पर द्रव्यों के प्रति स्थिर भाव छोड़कर निर्विकल्प रूप से आत्मध्यान करना कायोत्सर्ग है । इसे व्युत्सर्ग भी कहते हैं। निःसंगता-अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग ही व्युत्सर्ग है। आत्मसाधना के लिए अपने आपको उत्सर्ग की विधि ही व्युत्सर्ग है । इसकी साधना से श्रमण अपने देह के प्रति ममत्व भाव का पूर्णतः विसर्जन करने की स्थिति में पहुँच जाता है, क्योंकि शरीर अन्य है, जीव-आत्मा अन्य है-इस प्रकार के भेद-विज्ञान का चिन्तन आत्म-साधना में आवश्यक है। इससे चित्त की एकाग्रता उत्पन्न होती है और आत्मा को अपने स्व-रूप चिन्तन का अवसर मिलता है। इस प्रकार आत्मा निर्भय बनकर अपने कठिनतम उद्देश्य की सिद्धि में समर्थ होता है। उत्तराध्ययन में कहा है कि कायोत्सर्ग (कुछ समय के लिए देहोत्सर्ग अर्थात् अर्थात् देह-भाव के विसर्जन) से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का विशोधन करता है। और ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भार-वाहक की भाँति निर्वृतहृदय (शान्त या हल्का) हो जाता है और प्रशस्तध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है ।६।। कायोत्सर्ग को कायिकध्यान, कायगुप्ति, कायविवेक, काय-व्युत्सर्ग और काय-प्रतिसंलीनता भी कहा जाता है।" कायोत्सर्ग के भेद : निक्षेप दृष्टि से कायोत्सर्ग के छह भेद है१. नाम-'कायोत्सर्ग' ऐसे इस नाम को नाम-कायोत्सर्ग कहते हैं । अथवा १. देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुविसग्गो ।। मूलाचार ११२८. २. तत्त्वार्थवार्तिक ६।२४।११. पृ० ५३०. ३. नियमसार १२१. ४. निःसंङ्गनिर्भयत्वजीविताशा व्युदासाद्यर्थो व्युत्सर्गः । -तत्त्वार्थवार्तिक ९।२६।१०. ५. अन्न इमं सरीरं अन्नोजीवुत्ति कयबुद्धि-आवश्यकनियुक्ति दीपिका १५४७. ६. उत्तराध्ययन २९।१३. ७. मनोनुशासनम् (द्वितीय संस्करण) पृ० १९६. ८. णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले य होदि भावे य । एसो काउ सग्गे णिक्खेवो छन्विहो ओ ॥ मूलाचार सवृत्ति ७।१५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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