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१२८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
पद, व्यंजन, घोष, स्वर आदि के उच्चारण का शुद्धिपूर्वक प्रत्याख्यान करना है । अनुपालन शुद्धि-अर्थात् आतंक, उपसर्ग, श्रम, दुर्भिक्ष, वृत्ति तथा महारण्यादि में आपत्ति के समय अपने व्रतों आदि की विशुद्धता बनाए रखना । परिणामशुद्धिअर्थात् राग-द्वेष रूप मन के परिणामों से रहित, पवित्र भावना से प्रत्याख्यान करना।
उपर्युक्त चार शुद्धियों से किये गये प्रत्याख्यान के द्वारा आत्मा को मन, वचन और काय को दुष्प्रवृत्तियों से रोककर शुभ प्रवृत्तियों में केन्द्रित किया जा सकता है। इससे अमर्यादित जीवन मर्यादित करने में सहायता मिलती है तथा जीवन में त्याग की निरन्तरता को बनाये रखा जा सकता है। समयसार में कहा है : अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ 'पर' है ऐसा समझकर प्रत्याख्यान करने से ज्ञान ही प्रत्याख्यान सिद्ध होता है और अपने ज्ञान में त्याग रूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है ।२ व्यवहार में तो श्रमण दिन में ही भोजन करके फिर योग्यकाल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ देना प्रत्याख्यान बताया है। यदि भोजन करने की इच्छा हो तो पूर्व दिन ग्रहण किये उपवास या प्रत्याख्यान का विधिपूर्वक क्षमापणा (निष्ठापना) करनी चाहिए उसके बाद विधि के अनुसार भोजन करके अपनी शक्ति के अनुसार पुनः प्रत्याख्यान या उपवास किया जाता है ।
इस प्रकार प्रत्याख्यान आवश्यक के द्वारा श्रमण स्वयं को व्यर्थ के भोगों से बचाते हैं और आत्मचिन्तन में तत्पर रखते हैं। इसके करने से आस्रव का निरोध होता है। उससे संवर तथा संवर से तृष्णा का नाश होकर समत्व की प्राप्ति होती है और क्रमशः मुक्ति प्राप्त करता है। ६. कायोत्सर्ग:
मूलाचारकार ने कायोत्सर्ग के लिए विसर्ग५ तथा व्युत्सर्ग शब्दों का भी प्रयोग किया है । देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आदि अर्हत्प्रणीत कालप्रमाण के अनुसार अर्थात् जिस-जिस काल में जितना-जितना कायोत्सर्ग कहा गया है उस काल का अतिक्रमण किये बिना यथोक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान् का चिन्तन करते हुए शरीर से ममत्व त्याग विसर्ग या १. मूलाचार ७११४३-१४६. २. सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाइ परेत्ति णादूणं ।
तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुणेयव्वं ।। समयसार ३४. ३. नियमसार तात्पर्यवृत्ति ९५.
४. अनगार धर्मामृत ९।३६. ५. मूलाचार ११२२.
६. वही. ७।१८१.
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