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________________ मूलगुण : १२७ स्थानांग सूत्र में प्रत्याख्यान के तीन और पांच भेदों का भी उल्लेख मिलता है ।' तीन भेद इस प्रकार है-१. कुछ जीव मन से प्रत्याख्यान करते हैं । २. कुछ जीव वचन से प्रत्याख्यान करते हैं तथा ३. कुछ जीव काया से प्रत्याख्यान करते हैं, दुबारा पाप-कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करते । अथवा १. कुछ जीव दीर्घकाल तक पाप कर्मों का प्रत्याख्यान करते हैं । २. कुछ जीव अल्पकाल तक पापकर्मों का प्रत्याख्यान करते हैं । ३. कुछ जीव काया को प्रतिसंहृत करते हैं, दुबारा पाप कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करते ।। प्रत्याख्यान के पांच भेद इस प्रकार हैं:-१. श्रद्धाशुद्ध अर्थात् श्रद्धापूर्वक स्वीकृत २. विनयशुद्ध-विनय समाचरण पूर्वक स्वीकृत ३. अनुभाषण शुद्धप्रत्याख्यान कराते समय गुरु जिस पाठ का उच्चारण करें उसे दोहराना । ४. अनुपालना शुद्ध-कठिन परिस्थिति में भी प्रत्याख्यान का भंग न करना अपितु उसका विधिवत् करना। ५. भावशुद्ध-राग-द्वेष या आकांक्षात्मक मानसिक भावों से अदूषित । प्रत्याख्यान को विधि: _ 'महाव्रतों' के विनाश व मलोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे वैसा करता हूँ, ऐसी मन से आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों को शुद्धि के प्रतिग्रह का नाम प्रत्याख्यान है । आवश्यकवृत्ति के अनुसार श्रद्धान, ज्ञान, वंदना, अनुपालन, अनुभाषण और भाव-इन छह शुद्धियों युक्त किया जाने वाला शुद्ध प्रत्याख्यान होता है। मूलाचारकार ने विश द्धिपूर्वक प्रत्याख्यान के पालन हेतु विनय, अनुभाषा, अनुपालन और परिणाम--इन चार प्रकार की शुद्धियों का विधान किया गया है ।" स्थानांगसूत्र में इन्हीं शुद्धियों में श्रद्धा को सम्मिलित करके प्रत्याख्यान के पूर्वोत्त पांच भेद उल्लिखित हैं। विनयशुद्धि का अर्थ कृतिकर्म, औपचयिक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन पाँच विनयों से युक्त प्रत्याख्यान किया है। अनुभाषा शुद्धि से तात्पर्य गुरु वचनों के अनुसार अक्षर, १. स्थानाङ्ग ३।२७, ५१२२१. २. पंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा-सद्दहणसुद्धे, विणयसुद्ध, अणुभासणा सुद्धे अणुपालणासुद्धे भावसुद्धे-स्थानांग ५।२२१. ३. धवला ८।३।४१।८५११. ४. आवश्यक वृत्ति पृ० ८४७. ५. विणएणं तहाणुभासा हवदि य अणुपालणा य परिणामे । ___एवं पच्चक्खाणं चदुविधं होदि णादव्वं ।। मालाचार ७३१४२, स्थानांग ५।३।४६५. ६. स्थानांग ५।२११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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