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मूलगुण : १२५
(२) अतिक्रान्त-अतीत (भूत) काल विषयक उपवास आदि करना । जैसे चतुर्दशी आदि को कारणवश उपवास न कर पाये तो उसे आगे प्रतिपदा आदि में करना।
(३) कोटिसहित-अर्थात् संकल्प-सहित शक्ति की अपेक्षा उपवासादि करने का संकल्प करना । जैसे-कल स्वाध्याय के बाद यदि शक्ति होगी तो उपवासादि करूँगा अन्यथा नहीं।
(४) निखंडित-पाक्षिक, मासिक आदि में अवश्यकरणीय उपवासादि का करना।
(५) साकार-सभेद अर्थात् प्रत्याख्यान करते समय आकार विशेष जैसे सर्वतोभद्र, कनकावल्यादि व्रतों के उपवासों को विधि, नक्षत्राद्रि के भेद पूर्वक करना।
(६) अनाकार-बिना आकार अर्थात् नक्षत्रादि का भेद या विचार किये बिना स्वेच्छया उपवासादि करना।
(७) परिणामगत-दो, तीन, पन्द्रह आदि दिन के काल प्रमाण सहित उपवासादि करना ।
(८) अपरिशेष-यावज्जीवन चार प्रकार के आहार आदि का परित्याग करना।
(९) अध्वानगत-(मार्ग विषयक)-जंगल, नदी, देश आदि का रास्ता पार करने तक आहारादि का त्याग करना ।
(१०) सहेतुक-उपसर्गादि के कारण उपवासादि करना। आवश्यकनियुक्ति दीपिका में वर्णित प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेद :
पहले मूलाचारकार ने प्रत्याख्यान के मूलगुण और उत्तरगुण इन दो भेदों तथा इनके उपयुक्त भेदों का संकेत मात्र करके अन्त में कुल दस भेदों की गणना की है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा की आवश्यकनियुक्ति दीपिका में इन भेदों से कुछ शब्दभेद तथा अर्थभेद के साथ स्पष्टीकरण पूर्वक इनका विवेचन किया गया है । इसमें सर्वप्रथम निक्षेप दृष्टि से प्रत्याख्यान के नाम, स्थापना, द्रव्य, अदित्सा (न देने की इच्छा), प्रतिषेध और भाव-ये छह भेद किये हैं। इनमें भावप्रत्याख्यान के श्रुत और नोश्र त-ये दो भेद बताये हैं। नोश्र तभाव
१. नाम ठवणादविए अइच्छपडिसेहमेव भावे च । ए ए खलु छन्भेया पच्चखाणंमि नायग्वा ।।
-आवश्यक नियुक्ति दीपिका १५५१
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