________________
मूलगुण : १२३ अर्थात् जो श्रमण गुरु के उपदेश, अर्हद् की आज्ञा तथा सम्यक् विवेकपूर्वक दोषों के स्वरूप को जानकर उनका साकार ( सविकल्प ) और निराकार ( निर्विकल्प ) रूप से प्रतिक्रमण (पूर्ण त्याग) करता है तथा उसका ग्रहणकाल, मध्यकाल और समाप्ति काल में दृढ़तापूर्वक पालन करता है, उस धैर्यवान् आत्मा को प्रत्याख्यायक कहते हैं । " २ प्रत्याख्यान से तात्पर्य त्याग के परिणाम से है । अर्थात् जिन परिणामों से तप के लिए सावद्य या निरवद्य द्रव्य का त्याग किया जाता है । अन्न, वस्त्र आदि बाह्य द्रव्यरूप वस्तुओं का त्याग तथा अज्ञान, असंयम आदि के त्याग द्वारा भावपूर्वक और भावत्याग के उद्देश्य से होना चाहिए । ३. प्रत्याख्यातव्य से तात्पर्य त्याग योग्य परिग्रह अर्थात् सचित्त, अचित्त और मिश्र एवं अभक्ष्य भोज्य आदिरूप वाह्य उपधि तथा क्रोध, मान, माया और लोभ रूप अन्तरंग उपधि का त्याग है । ३ इस प्रकार प्रत्याख्यान के ये तीन अंग हैं तथा भूत, भविष्य और वर्तमान – इन तीन कालों की दृष्टि से इनके तीन-तीन भेद है |
-
४
प्रत्याख्यान के भेद :
अपराजितमूरि ने योग के सम्बन्ध से मन, वचन और काय की दृष्टि से प्रत्याख्यान के तीन भेद किये हैं । १. मैं अतिचारों को भविष्यकाल में नहीं करूंगा ऐसा मन से विचार करना मनःप्रत्याख्यान है । २. भविष्यकाल में मैं अतिचार नहीं करूँगा – ऐसा वचनों द्वारा कहना वचन प्रत्याख्यान है । तथा ३. शरीर के द्वारा भविष्यकाल में अतिचार नहीं करना कायप्रत्याख्यान है ।"
-
अन्य आवश्यकों के समान निक्षेप दृष्टि से प्रत्याख्यान के भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- ये छह भेद हैं ।
१. अयोग्य नाम का उच्चारण 'मैं नहीं करूँगा इस प्रकार का संकल्प नाम प्रत्याख्यान है ।
२. आप्ताभास रूप सरागी देवों की प्रतिमाओं की पूजा तथा त्रस, स्थावर जीवों की स्थापना को त्रिविध रूप से मैं पीड़ित नहीं करूंगा ऐसा मानसिक संकल्प स्थापना प्रत्याख्यान है ।
१. मूलाचार ७११३७.
३. मूलाचार ७११३८.
४. पच्चखाओ पच्चक्खाणं पञ्चक्खियव्वमेवं तु ।
तीदे पच्चपणे अणागदे चेव कालमि ॥ वही ७।१३६.
भगवती आराधना विजयोदया टीका ५०९ पृष्ठ ७२८.
५.
६. वही १।२७.
२. वही ७।१३८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org