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________________ १२२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन लिखा है कि समस्त वाचनिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान आवश्यक होता है ।' समयसार के अनुसार भविष्यत्-काल का शुभ व अशुभ कर्म जिस भाव में बनता है, उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है वह प्रत्याख्यान युक्त आत्मा है। इस तरह जो आत्मा समस्त कर्मजनित वासनाओं से रहित आत्मा को देखता है, उनके पापागमन के कारणभूत भावों का त्याग प्रत्याख्यान है । वस्तुतः प्रत्याख्यान शब्द तत्त्व के द्वारा जानकर हेतुपूर्वक नियम करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। चाहे हम किसी वस्तु का भोग भले ही न करें, यदि प्रत्याख्यान नहीं किया हो तो वह त्याग फलदायक नहीं होता । क्योंकि हमने तत्त्वरूप से इच्छा का निरोध नहीं किया। प्रत्याख्यान रूप में नियम न करने से अपनी इच्छा खुली रहती है । यदि प्रत्याख्यान हो तो स्वाभाविक रूप से दोष के हेतुओं की ओर दृष्टि करने तक की इच्छा नहीं होती। इसके विपरीत प्रत्याख्यान न करने वाला पुरुष विवेकहीन होने के कारण सतत् कर्मबंध करता रहता है। सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में इसके विषय में एक उदाहरण इस प्रकार उल्लिखित है कि किसी वध करने वाले (वधक) ने सोचा कि उस गृहस्थ अथवा गृहस्थपुत्र या राजा की हत्या करना है। पहले सो जाऊँ, फिर उठकर अवसर पाते ही उसकी हत्या करूँगा। इस प्रकार के संकल्प वाला बधक पुरुष चाहे सोया हुआ हो या जागा हुआ हो, चल रहा हो या बैठा हो-उसके मन में निरंतर हत्या की भावना विद्यमान होने से वह तो किसी भी समय हत्या की भावना को कार्यरूप में परिणत कर सकता है। अपनी इस सावध मनोवृत्ति के कारण वह निरन्तर प्रतिक्षण कर्मबन्ध करता रहता है। अतः साधक व्यक्ति को सावद्ययोग का प्रत्याख्यान अत्यावश्यक है । इससे जितने अंश में सावधवृत्ति का त्याग किया जाता हैं, उतने अश में कर्मबंधन रुक जाता है। इस दृष्टि से प्रत्याख्यान आवश्यक निरवद्यानुष्ठान रूप होने से आत्म शुद्धि के लिए साधक है। प्रत्याख्यान के तीन अंग : प्रत्याख्यान के प्रत्याख्यायक, प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यातव्य-ये तीन अंग हैं।"१. प्रत्याख्यायक से तात्पर्य संयमयुक्त जीव है । १. मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि, पच्चक्खाणं हवे तस्स । नियमसार ९५, २. समयसार ३८४. ३. योगसार ५।५१. ४. सूत्रकृतांग द्वितीयश्रुतस्कन्ध चतुर्थाध्ययन दिद्रुत एवं उवणय पदं पृ० ४५१. ५. पच्चक्खाओ पच्चक्खाणं पच्चक्खियव्वमेवं तु । तीदे पच्चुप्पण्णे अणागदे चेव कालमि ॥ मूलाचार ७।१३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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