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________________ मूलगुण : १२१ आयिकाओं आदि को नित्य प्रतिक्रमण करने की परम्परा निरन्तर चली आ रही है। प्रतिक्रमण आवश्यक के अन्तर्गत ही मूलाचार में दस मुंडों का भी विवेचन किया है । दस मुण्ड' इस तरह है : स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को स्व-स्व विषयों में प्रवृत्त न होने देना-ये पाँच इन्द्रियमुंड तथा वचोमुंड-अप्रस्तुत भाषण न करना । हस्तमुंड-अप्रस्तुत कार्यों में हाथ न फैलाना, उसे संकुचित रखना, पादमुंड-अयोग्य कार्य में पैरों को प्रवृत्त न होने देना । मनोमुंड-मन के पापपूर्ण विचारों को नष्ट करना तथा तनुमुण्ड-शरीर को अशुभ पापकार्य में प्रवृत्त न होने देना। इन दस मुण्डों से आत्मा पाप में प्रवृत्त नहीं होती अतः उस आत्मा को मुण्डधारी कहते हैं ।२ ___ इस तरह श्रमणाचार में प्रतिक्रमण का अपना विशिष्ट स्थान है। यह षडावश्यकों के अन्तर्गत होते हुए भी अपनी अत्यधिक महत्ता के कारण आजकल प्रतिक्रमण 'आवश्यक' शब्द का पर्यायवाची बन गया है। अर्थात् 'आवश्यक' शब्द का प्रयोग न करके भी छहों आवश्यकों के लिए 'प्रतिक्रमण' शब्द का प्रयोग होने लगा है। इतना ही नहीं कुछ अर्वाचीन ग्रन्थों तक में 'प्रतिक्रमण' शब्द सामान्य 'आवश्यक' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ५ प्रत्याख्यान : प्रमादपूर्वक किये गये भूतकालीन दोषों का प्रक्षालन प्रतिक्रमण कहलाता है तथा भविष्यकाल के प्रति मर्यादा के साथ अशुभयोग से निवृत्ति तथा शुभयोग में प्रवृत्ति का आख्यान (प्रतिज्ञा) करना प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) है । तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है । अर्थात् अयोग्य द्रव्य का परिहार करना अथवा तप में बाधक योग्य द्रव्यों का भी त्याग करना प्रत्याख्यान है।" मूलाचार के अनुसार नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन छह निक्षेपों के विषय में शुभ मन, वचन और काय के द्वारा अनागत और वर्तमान काल के लिए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में १. पंचवि इंदियमुंडा वचमुंडा हत्थपायमणमुंडा । तणुभुडेण वि सहिया दसमुंडा वणिया समए ।मूलाचार ३॥ १२१. २. वही वृत्ति० ३।१२१. ३. दे०-धर्मसंग्रह-प्रतिक्रमण विधि आदि. ४. मूलाचार वृत्ति १।२७. ५. अनागतं चानुपस्थितं च अथवा अनागते दूरेणागते काले (दूरे भविष्यतिकाले) -वही। ६. णामादीणं छण्हं अजोगपरवज्जणं तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले ॥मूलाचार १।२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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