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________________ १२० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन प्रतिक्रमण की परम्परा : चौबीस तीर्थंकरों के संघ में प्रतिक्रमण के विधान की परम्परा का मूलाचारकार ने उल्लेख करते हुए लिखा है कि-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को अतिचार (दोष) लगे या न लगे किन्तु दोषों को विशुद्धि के लिए समयानुसार प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया, किन्तु मध्य के बाईस तीर्थकरों अर्थात् द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ से लेकर तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ ने अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया और कहा कि जिस व्रत में स्वयं या अन्य साधु को अतिचार हो उस दोष के नाशार्थ उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए। क्योंकि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धिशाली, एकाग्रमनवाले, प्रेक्षापूर्वकारी, अतिचारों को गर्दा एवं जुगुप्सा करने वाले तथा शुद्ध-चरित्र होते थे। किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचल चित्तवाले, मोही तथा जड़ बुद्धिवाले होते थे। अतः ईर्यापथ, आहारगमन, स्वप्नादि में किसी भी समय अतिचार होने या न होने पर भी उन्हें सभी नियमों एवं प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों के उच्चारण का उपदेश दिया। मूलाचारकार ने इसके सम्बन्ध में अन्धलकघोटक (अन्धे घोड़े) का दृष्टान्त इस प्रकार दिया है। किसी राजा का घोड़ा अन्धा हो गया। राजा ने उसे उपचार हेतु वैद्य के यहाँ भेजा किन्तु वैद्य दूसरे गाँव गया था। वैद्य के पुत्र से उसकी दवा के लिए कहा किन्तु उसे दवा आदि का विशेष कुछ भी ज्ञान न था। फिर भी अति आवश्यकतावश उसने घोड़े की आँखों पर क्रमशः सभी दवाओं का प्रयोग किया और किसी दवा के प्रयोग से अचानक ही घोड़े की आँखें अच्छी हो गईं। ठोक इसी अन्धलकघोटक न्याय रूप दृष्टान्त की तरह एक अतिचार के होने या न होने पर भी प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों के उच्चारण का विधान किया गया ताकि किसी एक पर मन स्थिर हो जाने से दोषों का प्रमार्जन हो जाय ।। ___अर्थात् वैद्यपुत्र की तरह मुनि का मन जब एक प्रतिक्रमण दण्डक में स्थिर नहीं होता हो तो यह सोचकर सभी प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करना चाहिए कि एक के उच्चारण में नहीं तो दूसरे के उच्चारण में मन स्थिर होगा दूसरे में नहीं तो तीसरे में, तीसरे में नहीं तो चौथे में। इस तरह सभी प्रतिक्रमण-दण्डक कर्म-क्षय में समर्थ होने से सभी प्रतिक्रमण दण्डकों के उच्चारण में कोई विरोध नहीं है। इसी विधान के अनुसार आज तक सभी मुनियों एवं . १. मूलाचार ७।१२९-१३३. २. पुरिमचरिमादु जह्मा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिटुंतो । मूलाचार ७।१३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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