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________________ मूलगुण : ११९ घारी होकर कर्मास्रवों का निरोध करता हुआ वह शुद्ध चारित्र का पालन और अष्टप्रवचन-माता के आराधन में सावधान तथा संयम रूप सन्मार्ग में एक-रस हो जाता है और सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण करता है।' वस्तुतः सभी प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक होते हैं, तब उससे दोषशुद्धि होती है। इसकी विधि इस प्रकार है-सर्वप्रथम विनयकर्म करके, शरीर, आसन आदि का पिच्छिका से प्रमाजन व नेत्र से देखभाल कर शुद्धि करे। इसके बाद अंजुलि छोड़कर ऋद्धि आदि गौरव तथा जाति आदि सभी तरह के मान छोड़कर व्रतों में हुए अतिचारों को गुरु के समक्ष निवेदन करना चाहिए । आचार्य के समक्ष अपराधों का निवेदन नित्यप्रति करना चाहिए । आज नहीं, दूसरे या तीसरे दिन अपराधों को कहूँगा इत्यादि रूप में टालते हुए कालक्षेप करना ठीक नहीं। अतः जैसे-जैसे माया के रूप में अतिचार उत्पन्न हों, उन्हें अनुक्रम से आलोचना, निन्दा और गर्दापूर्वक विनष्ट करके पुनः उन अपराधों को नहीं करना चाहिए। और जब पापकर्म करने पर प्रतिक्रमण करना आवश्यक है तब इससे अच्छा तो यही है कि वह पापकर्म ही न किया जाय। धर्मकथा आदि में विघ्न का कोई कारण उपस्थित होने पर यदि कोई मुनि अपने स्थिर योगों को भूल जाय तब सर्वप्रथम आलोचना करके संवेग और वैराग्य में तत्पर रहे। छोटे अपराध के समय यदि गुरु समोप न हों तब वैसी अवस्था में-'मैं फिर ऐसा कभी न करूँगा, मेरा पाप मिथ्या हो-' इस प्रकार प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण करते हैं उसी तरह असंयम, क्रोधादि कषायों एवं अशुभ योगों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। इस तरह दैवसिक, रात्रिक आदि इन सब नियमों को पूर्णकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान करना चाहिए । आलोचनाभक्ति करते समय कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमणभक्ति करने में कायोत्सर्ग, वीरभक्ति में कायोत्सर्ग, और चतुर्विशति तीर्थकरभक्ति कायोत्सर्ग-प्रतिक्रमण काल में ये चार कृतिकर्म करने का विधान है। १. उत्तराध्ययन २९।१२. २. सर्व प्रतिक्रमणमालोचनापूर्वकमेव । -तत्त्वार्थकार्तिक ९।२२।४. ३. मूलाचार ७३१२१. ४. उप्पण्णो उप्पण्णा माया आणुपुव्वसो णिहंतव्वा । आलोचणणिदणगरहणाहिं ण पुणो तिअं विदिशं ।। मूलाचार ७।१२५. ५. आवश्यक नियुक्ति भाग १, गाथा ६८४. ६. चारित्रसार १४१।४. ७. मूलाचार ७१२०. ८. वही ७।१६८. ९. वही ७।१०३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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