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________________ ११८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन उपर्युक्त सात भेदों के अतिरिक्त भी मूलाचार के संक्षेप-प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव नामक तृतीय अधिकार में आराधना (मरणसमाधि) काल के तीन प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है । १. सर्वातिचार-दीक्षा ग्रहण काल से लेकर सम्पूर्ण तपश्चरण काल में हुए समस्त अतिचारों का प्रतिक्रमण (त्याग), २. त्रिविध आहार का प्रतिक्रमण-जल के अतिरिक्त अशन, खाद्य और स्वाद्य-इन तीन प्रकार के आहार का त्याग, ३. उत्तमार्थ प्रतिक्रमण-जीवन पर्यन्त पानकजल आदि का भी त्याग । यह प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ (मोक्ष) के लिए होता है । उत्तमार्थ प्रतिक्रमण से तात्पर्य है बाह्य तथा अभ्यान्तर परिग्रह, आहार और शरीर से ममत्व का जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना । __ मूलाचारवृत्ति में आचार्य वसुनन्दि ने आराधनाशास्त्र के आधार पर योग, इन्द्रिय, शरीर और कषाय-इन चार प्रतिक्रमणों का भी उल्लेख किया है । मम, वचन और काय-इन तीन योगों का त्याग योग-प्रतिक्रमण है । पंचेन्द्रियों के विषयों का त्याग इन्द्रिय-प्रतिक्रमण है । औदारिक वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण-इन पाँच शरीरों का त्याग (अपने शरीर को कृश करना) शरीर-प्रतिक्रमण एवं अनन्तानुबंधी आदि सोलह कषायों का, हास्य, रति आदि नौ नोकषायों का त्याग करना कषाय प्रतिक्रमण है । उपर्युक्त तीन योगों के ही सम्बन्ध से अपराजितसूरि ने प्रतिक्रमण के तीन भेद किये हैं-१. किये हुए अतिचारों का मन से त्याग करना तथा हा ! मैंने पाप-कर्म किया. ऐसा मन में विचार करना मनःप्रतिक्रमण है । २. प्रतिक्रमण के सूत्रों का उच्चारण करना वाक्य-प्रतिक्रमण है । तथा ३. शरीर के द्वारा दुष्कृत्य न करना काय-प्रतिक्रमण है।" प्रतिक्रमण की विधि : आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-जो वचन रचना को छोड़कर, रागादिभावों का निवारण करके आत्मा को ध्याता है; उसे प्रतिक्रमण होता है। क्योंकि-प्रतिक्रमण व्रतों के अतिचारों को दूर करने का महत्वपूर्ण उपाय है । इसके द्वारा जीव स्वीकृत व्रतों के छिद्रों को ढंक लेता है और शुद्धव्रत १. पढमं सव्वदिचारं बिदियं तिविहं हवे पडिक्कमणं । पाणस्य परिच्चयणं जावज्जीवाय उत्तमढें च ॥ मूलाचार ३।१२०. २. वही, वृत्ति ३।१२०. ३. मूलाचार ३।११४. ४. मूलाचार वृत्ति० ३।१२०. ५. भगवती आराधना विजयोदया टीका गाथा ५०९ पृष्ठ ७२८. ६. मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ॥ नियमसार ८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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