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मूलगुण : ११७ निक्षेप दृष्टि से प्रतिक्रमण के छह भेद हैं ।' १. अयोग्य नामोच्चारण से निवृत्त होना। अथवा प्रतिक्रमण दंडक के शब्दों का उच्चारण करना नाम प्रतिक्रमण है। २. सराग स्थापनाओं से अपने परिणामों को हटाना स्थापना प्रतिक्रमण है। ३. सावद्य द्रव्य सेवन के परिणामों को हटाना द्रव्य प्रतिक्रमण है । ४. क्षेत्र के आश्रय से होने वाले अतिचारों से निवृत्त होना क्षेत्र प्रतिक्रमण है । ५. काल के आश्रय या निमित्त से होने वाले अतिचारों से निवृत्त होना काल प्रतिक्रमण है । तथा ६. राग-द्वेष, क्रोधादि से उत्पन्न अतिचारों से निवृत्त होना भाव प्रतिक्रमण है।
कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के सात भेद ये हैं
१. दैवसिक : सम्पूर्ण दिन में हुए अतिचारों की आलोचना प्रत्येक सन्ध्या करना । २. रात्रिक : सम्पूर्ण रात्रि में हुए अतिचारों की प्रतिदिन के प्रातः आलोचना करना । ३. ईर्यापथ : आहार, गुरुवंदन, शोच आदि जाते समय षट्काय के जीवों के प्रति हुए अतिचारों से निवृत्ति । ४. पाक्षिक : सम्पूर्ण पक्ष में लगे दोषों की निवृत्ति के लिए अमावस्या एवं पूर्णिमा को उनकी आलोचना करना। ५. चातुर्मासिक : चार माह में हुए अतिचारों की निवृत्ति हेतु कार्तिक. फाल्गुन एवं आषाढ़ माह की पूर्णिमा को विचारपूर्वक आलोचना करना । ६. सांवत्सरिक : वर्ष भर के अतिचारों की निवत्ति हेतु प्रत्येक वर्ष आषाढ़ माह के अन्त में चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन चिन्तनपूर्वक आलोचना करना । ७. औत्तमार्थ : यावज्जीवन चार प्रकार के आहारों से निवृत्त होना औत्तमार्थ प्रतिक्रमण है। इसके अन्तर्गत जीवनपर्यन्त सभी प्रकार के अतिचारों का भी त्याग हो जाता है।
। प्रतिक्रमण के उपर्युक्त भेदों के आधार पर लोग प्रायः एक प्रश्न करते हैं कि जब दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण करने से प्रतिदिन के अतिचारों की निवत्ति हो जाती है तब पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमण करने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि प्रतिदिन प्रतिक्रमण करने के बाद भी कुछ अतिचारों का प्रमार्जन शेष रह जाता है, उसके लिए पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक-इन प्रतिक्रमणों का विधान किया है। इनमें भी जो अतिचार छूट गये उनके त्याग के लिए औत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
१. मूलाचार : ७।११५, वृत्तिसहित, भगवती आराधना वि० टी० ११६. ३. पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं ।
पक्खियं चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमढें च ॥ मूलाचार ७।११६.
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