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________________ ११६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन प्रमादादि से लगे हुए दोषों से निवृत्त होने वाला' अथवा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक अतिचारों से निवृत्त होता है वह (साधु) प्रतिक्रामक कहलाता है । इस दृष्टि से जीव प्रतिक्रामक हुआ ।२ २. प्रतिक्रमण : पंचमहाव्रतादि में हुए अतिचारों से निवृत्त होकर महाव्रतों की निर्मलता में पुनः प्रविष्ट होने वाले जीव के उस परिणाम का नाम प्रतिक्रमण है । अथवा जिस परिणाम से जीव चारित्र में लगे अतिचारों को हटाकर चारित्र शुद्धि में प्रवृत्त हो, जीव का वह परिणाम प्रतिक्रमण है। ३. प्रतिक्रमितव्य : भाव, गृह आदि क्षेत्र, दिवस, मुहूर्तादि दोषजनक काल तथा सचित्त, अचित्त एवं मिश्र रूप द्रव्य, जो पापात्रव के कारण हों वे सब प्रतिक्रमितव्य (त्याग के योग) है। प्रतिक्रमण के भेद : मूलाचारकार ने प्रतिक्रमण के मूलतः भावप्रतिक्रमण और द्रव्य-प्रतिक्रमण-ये दो भेद किये हैं। इनमें (१) भावप्रतिक्रमण : मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और अप्रशस्तयोग-इन सबकी आलोचना, (गुरु के सम्मुख अपने द्वारा किये अपराधों का निवेदन करना), निन्दा और गर्दा के द्वारा प्रतिक्रमण करके और पुनः दोष में प्रवृत्त न होने वाले को भावप्रतिक्रमण होता है । शेष को द्रव्य प्रतिक्रमण कहा जाता है । भावयुक्त श्रमण ही जिन अतिचारों के नाशार्थ प्रतिक्रमण सूत्र बोलता-सुनता है, वह साधु विपुल निर्जरा करता हुआ, सभी दोषों का नाश करता है, और वस्तुतः वचन-रचना मात्र को त्यागकर जो साधु रागादि भावों को दूर करके आत्मा को ध्याता है, उसी के (पारमार्थिक) प्रतिक्रमण होता है।' (२) द्रव्य प्रतिक्रमण : उपर्युक्त विधि से जो अपने दोष परिहार नहीं करता और सूत्रमात्र से सुन लेता है, निन्दा, गों से दूर रहता है तो उसका द्रव्य प्रतिक्रमण होता है। क्योंकि विशुद्ध परिणाम रहित होकर द्रव्यीभूत दोष युक्त मन से जिन दोषों के नाशार्थ प्रतिक्रमण किया जाता है, वे दोष नष्ट नहीं होते । अतः उसे द्रव्य-प्रतिक्रमण कहते हैं।° द्रव्य सामायिक की तरह द्रव्य प्रतिक्रमण के भी आगम और नोआगम आदि भेद प्रभेद किये जा सकते हैं। १. मूलाचार वृत्ति ७।११७. २. जीवो दु पडिक्कमओ दन्वे खेत्ते य काल भावे य । मूलाचार ७।११८. ३. वही ७।११८, तथा ७।११७ को वृत्ति. ४. वही ७।११९. ५. वही ७।१२.. ६. वही ७।१२६. ७. वही ७।१२८. ८. नियमसार ८३. ९. सेसं पुण दव्वतो भणिों । मूलाचार ७।१२६. १०. वही : ७।१२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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