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________________ मूलगुण : ११५ ४ प्रतिक्रमण : सामान्यतः श्रमण जिस क्रिया के द्वारा किए हुए दोषों, अपराधों एवं पापों का प्रक्षालन करके शुद्ध होता है वह प्रतिक्रमण (पडिक्कमण) कहलाता है। अतः प्रमादपूर्वक किये गये' अतीतकालीन दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है ।२ मूलाचारकार के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावपूर्वक किये हुए अपराधों (दोषों) का मन, वचन और काय से निंदा (आत्मालोचन या अपनी भूलों के प्रति अनादर का भाव प्रकट करना) और गर्दा (गुरु आदि के समक्ष अपनी भलों को प्रकट करना) के द्वारा शोधन करना प्रतिक्रमण है । अर्थात् आहार, शरीर, शयनासन, गमनागमन और चित्तवृत्ति द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से व्रतों में हुए अतीतकालीन अपराधों का निन्दा एवं गर्हापूर्वक शोधन करना अर्थात् दोषों का परित्याग करना प्रतिक्रमण है ।। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-सावद्य (पाप) प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़ गये थे उतने ही पीछे हटकर पुनः शुभयोग रूप स्व-स्थान में अपने आपको लौटा लाना प्रतिक्रमण है। आचार्य भद्रवाह ने प्रतिक्रमण के पर्यायवाची आठ नाम बताये हैं -(१) प्रतिक्रमणः-सावध योग से विरत होकर आत्मशुद्धि में लौट आना, (२) प्रतिचरणाहिंसा, सत्य आदि संयम में सम्यक् रूप से विचरना, (३) परिहरणा : सभी तरह के अशुभ योगों का त्याग, (४) वारणा : विषय-भोगों से स्वयं को रोकना, (५) निवृत्तिः अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना, (६) निन्दा : पूर्वकृत अशुभ आचरण के लिए पश्चाताप करना, (७) गर्दा : आचार्य, गुरु आदि के समक्ष अपने अपराधों की निंदा करना और (८) शुद्धि : कृत दोषों की आलोचना, निंदा, गर्दा तथा तपश्चरण के द्वारा आत्मशुद्धि करना। प्रतिक्रमण के अंग : प्रतिक्रमण के तीन अंग हैं : १. प्रतिक्रामक अर्थात् १. गोम्मटसार जीवकाण्ड ३६७. २. अतीतकालदोषनिहरणं प्रतिक्रमणम् । मूलाचार वृत्ति १।२७. ३. दवे खेते काले भावे य कयावराहसोहणयं । जिंदणगरहणजुत्तो मणवचकायेण पडिक्कमणं ।। मूलाचार ११२६ ४. श्रावक धर्म संहिता : पृष्ठ १७७. ५. प्रतीपं क्रमणं-प्रतिक्रमणं । शुभ योगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात् प्रतीपं क्रमणम्-योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश. ६. आवश्यक नियुक्ति गाथा-१२३३. ७. पडिकमओ पडिकमणं पडिकमिदव्व च होदि णादव्वं । एदेसि पत्तेयं परूवणा होदि तिण्हपि ।। मूलाचार ७।११७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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