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________________ मूलगुण : ११३ (२) वाचिक औपचारिक विनय : पूज्यभाव रूप बहुवचन युक्त, हित, मित और मधुर, सूत्रानुवीचि (आगमानुकूल), अनिष्ठुर, अकर्कश, उपशांत अगृहस्थ (बन्धन, ताड़न, पीडन आदि रहित) अक्रिय और अलीहन (अपमानरहित) वचन बोलना वाचिक उपचार विनय है।' इस लक्षण के आधार पर इसके हित, मित, परिमित (सकारण) और अनुवीचि (आगमानुकूल) भाषण करना ये-चार भेद हैं । (३) मानसिक औपचारिक विनय : हिंसादि पाप और विश्रुति रूप सम्यक्त्व की विराधना के परिणामों का त्याग करना तथा प्रिय और हित परिणामयुक्त होना मानसिक उपचार विनय है। इस लक्षण के आधार पर इसके भी अकुशलमननिरोध और कुशलमनःप्रवृत्ति ये दो भेद हैं।" कुन्दकुन्द कृत० मूलाचार में इन्हीं भेदों का अशुभमनःसन्निरोध और शुभमनःसंकल्प नाम से उल्लेख किया गया है। औपचारिक विनय के उपर्युक्त तीनों भेदों में से प्रत्येक के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो-दो उपभेद भी होते हैं। उपर्युक्त सभी प्रकार की विनय का अप्रमत्तभाव से राज्यधिक मुनियों अर्थात् दीक्षा, श्रुत और तप इनमें ज्येष्ठ मुनियों के प्रति ऊनरात्रिक मुनियों में अर्थात् तप, गुण एवं वय में छोटे योग्य मुनियों तथा आयिकाओं, गृहस्थों (श्रावकों) के प्रति साधु को यथायोग्य पालन कर ना चाहिए । इस प्रकार वट्टकेर ने वंदना आवश्यक के प्रसंग में विनयकर्म का विस्तत भेद-प्रभेदों के साथ वर्णन किया है । प्रसंगानुसार विनय की उच्च महिमा का वर्णन भी किया है। यह जिनशासन का मूल है। इसी से संयम, तप और जान होता है। विनयहीन व्यक्ति को धर्म और तप कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार घूघट स्त्री की सुन्दरता को बढ़ा देता है उसी प्रकार विनय की छाया मनुष्य के सद्गुणों को और अधिक उत्तम बना देती है। विनयवान् श्रमण कलह १. मूलाचार ५।१८०-१८१, भगवती आराधना १२३-१२४. २. वही ५।१८६. ३. वही ५।१८२, भगवती आराधना ११५. ४. वही ५।१८६. ५. कुन्द० मूलाचार ५।२०९. ७. सो पुण सम्वो दुविहो पच्चक्खो तह परोक्खो य । मूलाचार ५।१७५. ८. रादिणिए ऊणरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवग्गे । विणओ जहारिओ सो कायन्वो अप्पमत्तण ॥ मूलाचार ५।१८७. ९. विणओ सासणमूलो विणयादो संजमो तवो णाणं । विणयेण विप्पहूणस्स कुदोधम्मो कुदो य तवो । कुन्द० मूलाचार ७।१०४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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