SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ४. तप-विनय-संयम रूप उत्तरगुणों में उद्यम करना, श्रम व परीषहों को अच्छी तरह सहन करना, यथायोग्य आवश्यक क्रियाओं में हानि-वृद्धि न होने देना, तप तथा तपोज्येष्ठ श्रमणों में भक्ति रखना और छोटे तपस्वियों, चारित्रधारी मुनियों की अवहेलना न करना तप-विनय है । यह आत्मा के अंधकार को दूर कर, उसे मोक्ष-मार्ग की ओर ले जाता है इससे बुद्धि नियमित (स्थिर) होती है। ५ औपचारिक विनय : रत्नत्रय के धारक श्रमण के अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना औपचारिक विनय है। गुरु आदि का यथायोग्य विनय करना भी उपचार विनय है । इस विनय के कायिक, वाचिक और मानसिक ये तीन भेद इस प्रकार हैं। (१) कायिक औपचारिक विनय : आचार्यादि गुरुजनों को आते देख आदरपूर्वक आसन से उठना, कृतिकर्म अर्थात् श्रुत और गुरुभक्ति पूर्वक कायोत्सर्ग आदि करना, मस्तक से नमन अर्थात् ऋषियों को अंजुलि जोड़कर नमन करना, उनके आने पर साथ जाना, उनके पीछे खड़े होना, प्रस्थान के समय उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे वामपार्श्व की ओर बैठना, उनसे नीचे वामपार्श्व की ओर से गमन करना, उनसे नीचे आसन पर सोना, आसन, पुस्तकादि उपकरण, ठहरने के लिए प्रासुक गिरि-गुहादि खोजकर देना, उनके शरीर बल के प्रतिरूप शरीर का संस्पर्शन मर्दन करना, कालानुसार क्रिया अर्थात् उष्ण काल में शीत तथा शीत काल में उष्ण क्रिया करने का प्रयत्न करना, आदेश का पालन करना, संस्तर बिछाना तथा प्रातः एवं सायं पुस्तक, कमण्डलु आदि उपकरणों का प्रतिलेखन (शोधन) करना-इत्यादि प्रकार से अपने शरीर के द्वारा यथायोग्य उपकार करना कायिक उपचार विनय है । उपर्युक्त लक्षण के आधार पर कायिक औपचारिक विनय के सात भेद है१. अभ्युत्थान-आचार्य आदि गुरुजनों के आने पर आदरपूर्वक उठना, २. सन्नतिमस्तक से नमन करना, ३. आसनदान, ४. अनुप्रदान-पुस्तकादि देना, ५. कृतिकर्म प्रतिरूप : सिद्ध, श्रुत और गुरु भक्ति पूर्वक यथायोग्य कायोत्सर्ग करना, ६. आसनत्याग और ७. अनुव्रजन अर्थात् पीछे-पीछे चलना या गमन काल में कुछ दूर तक साथ जाना। १. मूलाचार ५।१७३. २. वही ५।१७४, भगवती आराधना ११७. ३. वही ७।९१. ४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४५८. ५. मूलाचार ५।१७५, १८४. ६. वही ५।१७६-१७९, भगवती आराधना ११९-१२२. ७. मूलाचार ५।१८४-१८५, अनगारधर्मामृत ७१७१. www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy